Sunday, June 2, 2013

सौ बरस का सिनेमा

सौ बरस! सौ बरस का हो चूका हूँ मैं। फिर भी देखो मैं कितना जवान हूँ। आज भी मेरे खून में उतनी ही रवानी बहती है जितनी सौ बरस पहले। न जाने इन सौ बरस में मैंने कितने मुखोटे पहेने और कितने चेहरे बदले, कभी छोटा बना तो कभी बुढ़ा, कभी किसी ने मुझे चाँद तारों की तरह खूबसूरत बनाया, तो कभी किसी ने समाज का आइना बनाकर लोगों के सामने पेश किया। कभी किसी ने मुझे इतिहास के पन्नो से रूबरू करवाया तो कभी किसी ने दुनिया भर की सैर करवाया। मैंने लोगों को कई बार हंसाया भी और कई बार उनके आँखों में आंसूं भी ले आया। कभी प्यार-मोहब्बत की उलझने सुलझाई तो कभी ज़िन्दगी जीने का सलीका समझाया। कितना कुछ हुआ पिछले सौ बरस में!

एक पूरी सदी गुज़र गयी पर लगता है जैसे कल की ही बात हो जब 3 मई 1913 को मेरा जन्म हुआ। दादासाहेब फाल्के ने मेरा नाम राजा हरिश्चन्द्र रखा। वैसे तो मेरे जन्म के बीज कुछ साल पहले ही डल चुके थे पर पूरी तरह भारतीए होने में वक़्त लग गया। मैं इतना छोटा था कि मैं बोल भी नहीं पाता था पर मुझे देखने दूर-दूर से लोग आते थे और पूरे चालीस मिनट मुझे लगातार देखते थे। पर मुझे आवाज़ चाहिए थी जो मुझे 1931 में आलम आरा से मिली। फिर तो क्या था, मेरी चांदी ही चांदी हो गयी। अब लोगों ने मुझे और भी पसंद किया। पहले तो मुझे अछूत कन्या मानकर लोगों ने मुझसे तौबा किया पर धीरे-धीरे देवदास की तरह मेरे प्यार में डूब गए। अब मुझे और भी खूबसूरत और चमकदार बनाने का संघर्ष चालू हुआ।

जैसे ही पचास का दशक चालू हुआ मेरा रंग सोने की तरह दमकने लगा। मैं जवान हो रहा था और साथ में खूबसूरत और रंगीन भी। मुझे मनोरंजन तक सीमत न रख के, मुझे समाज के आईने की तरह प्रयोग कर जन जाग्रति में शामिल किया गया। इस आईने के रचेता बिमल रॉय हुए जिसने दो भीगा ज़मीन को गड़ा। मैंने कभी आवारा बन के इज्ज़तदार दीयों के निचे पल रहे अंधेरों को उजागर किया तो कभी जाग्रति से सही सिक्षा के माप-दंड तय किए। मैं क्षेत्रिय जंजीरों को तोड़ चूका था और अंतराष्ट्रीय मंच में मुकाबले के लिए तयार था। इस मुकाबले के लिए मेरे साथ खड़े हुए सत्यजित रे जिन्होंने मुझे पथेर पंचाली के लिए अपने कैमरे में कैद किया और निकल पड़े विश्व से मुकाबला करने। और वो एक से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने जैसे ठान लिया था की मुझे एक नया रूप देकर ही मानेंगे। एक ऐसा रूप जिस पर दुनिया नाज़ करे। सत्यजित रे ने अपराजितो और अपुर संसार से दो और भाग बनाये जिससे विश्वभर में मेरा नाम होना तय हुआ। सत्यजित रे ने अगर मुझे अपु के नाम से अमर कर दिया तो तपन सिन्हा ने काबुलीवाला से जग जीत लिया। और जब काबुलीवाला के रूप में बलराज साहिनी ने अपना जोहर दिखाया तो सारे हिंदी भाषियों की भी आँखें भर आई।

एक तरफ बंगाल में मुझे बदलने की मुहीम चल रही तो बम्बई भी कैसे पीछे रहती। जब गुरु दत्त ने एक शायर की मुफलिसी को मेरी आँखों से दिखाया तो ये तय हो गया कि मैं अभी भी प्यासा हूँ। और मेरी प्यास कागज़ के फूल तक नहीं सीमित नहीं थी। दो आँखें और बारह हाथ, मदर इंडिया, गाइड, मुग़लइ-ए-आज़म, साहिब बीवी और गुलाम, बंदिनी, पड़ोसन, भुवन शोमे, दस्तक जैसे कई कुएं मेरे लिए खोदे गए। बंगाल ने भी मुझे कई रत्नों से सजाया जिसमें प्रमुख रहे सत्यजित रे की चारुलता, नायक, महानगर, ऋत्विक घटक की भारत विभाजन पर आधारित मेघा ढका तारा। ये वो दौर था जब मेरे रुपहले परदे पे राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, उत्तम कुमार, बलराज साहिनी, मधुबाला, नूतन, मीना कुमारी, नर्गिस, वहीदा रहमान जैसे सितारों ने अपना जलवा भिखेरा और दुनिया उनकी कायल हो गयी।

सत्तर के दशक में मुझे एक और तारा मिला - हृषिकेश मुख़र्जी जिन्होंने मुझे लोगों के खूबसूरत मन का एहसास करवाया। वो चाहे रिश्तों के मायने हो या इंसानियत की परिभाषा, उनकी कोशिश रही की समाज में भाईचारा और बंधुत्व की भावना रहे। हलके-फुल्के पल जीवन में आनंद भर देते हैं। थोड़ा दफ्तर में गोलमाल करे या चुपके-चुपके अपने ससुर के साथ मौज मस्ती पर जरूरी है कि अपने सिर पर बड़ों का आशीर्वाद हमेशा बने रहे। ये सभी जीवन के सत्य बहुत खूब ह्रिशि दा ने मेरे ज़रिये लोगों तक पहुंचाए। इसी वक़्त मुझे एक सुपर स्टार भी मिला - राजेश खन्ना। एक ऐसा अभिनेता जिसे लोगों ने खूब चाह और सबसे बड़े सितारे का खिताब दिया। उस दिन मुझे महसूस हुआ कि मुझे लोग वो आसमान समझते हैं जिसमें कई सितारे चमक रहे हैं और हर कोई बस दिल में मुझे छूने की चाह रखता है।
ये वो भी दौर था जब पूरी कहानी कुछ एक किरदार के आस पास घूमती नज़र आती थी। पहले कहानियों में किरदार हुआ करते थे अब किरदार में कहानी थी। इस नई अभिव्यक्ति के सरताज थे गुलज़ार। उन्होंने उस मौसम में आंधी लेकर आये जब किसी ने अपेक्षा नहीं की थी। पर उनके साथ-साथ कई और गरम हवा भी चली। उसमें से अवल नाम था श्याम बेनेगल का। चाहे वो अंकुर की व्यथा हो, या मंथन का ख्वाब, या भूमिका के अलग-अलग रंग, श्याम बेनेगल ने एक बार फिर समाज के आईने को साफ़ किया। ये वो भी दौर था जब मैंने एक नए सितारे का जन्म देखा। एक ऐसा सितारा जिसे आगे चलकर सदी का महानायक कहा गया - अमिताभ बच्चन। ज़ंजीर, शोले और दीवार में दमदार भूमिका करके मेरे दिल में हमेशा के लिए जगह बना ली। ये वो भी दशक था जब लोगों ने मेरी अराधना की। ये वो समय था जब मेरे परदे पे जय संतोषी माँ जब भी अपना रूप दिखाती लोग भक्ति भावना से सिक्के दाल कर चरण-स्पर्श करते। और ये वो भी दौर था जब दक्षिण भारत ने भी मेरी चाहत को खुले आम दिखाना चालु कर दिया था। वो चाहे कमल हसन और रजनीकांत की मून्द्रू मुदिछु या कन्नड़ की घटाश्रद्धा, दक्षिण भारत ने अपना जलवा पूरे भारत में भिखेरना चालु कर दिया था।

इस दौर में कुछ ऐसे रूप भी मिले जो पहले कभी किसी नहीं देखा और जिसने लोगों को झंझोड़ कर रख दिया। आक्रोश में डूबा हुआ भीकू हो, या कोठे पे नाचती पाकीज़ा, या शतरंज की बिसात पे देखते भारत का इतिहास, या पहले आजादी की लड़ाई का जूनून। इस दशक ने मुझे सेकड़ो रूप दिए। हर शुक्रवार को एक नया रूप मिला। कुछ रूप मेरे लोगों ने खूब पसंद किया तो कुछ रूप को ठुकरा दिया। एक तरफ लोग मुझे चमकदार देखना चहाते थे, मुझमें सितारों की रौशनी ढूंढते थे, गाने बजाने का जश्न देखना था जिसके कारण मेरा बाजारीकरण हो रहा था और दूसरी तरफ कुछ ऐसे लोग थे जो मुझे खूबसूरत देखना चाहते थे। मुझमे मेरा अर्थ ढूंढना चाहते थे। इस टकराव ने मुझे दो भागो में विभाजित कर दिया। एक तरफ मैं लोकप्रिय था तो दूसरी तरफ मैं अर्थपूर्ण। अस्सी के दशक में विभाजन और भी गहरा होता गया। कहीं कुछ मिलाप हुआ तो वो था शक्ति, सदमा, मासूम और परिंदा में देखनो को मिला।

कमल हसन ने एक बार मुझे फिर नायगन से सम्मानित किया। उन्होंने ने मुझे पुष्पक विमानम से मेरे शुरूआती दिन की भी याद दिलाई। पर मेरा सबसे यादगार लम्हा रहा सलाम बॉम्बे के साथ जिसने दुनिया को बॉम्बे का अलग चेहरा दिखाया। लोगों ने मुझे खूब चाह और बहुत सराहना की। अस्सी का दशक सारांश में लिखना मुश्किल है पर जाने भी दो यारों ये वक़्त पार हो गया।

नब्बे के दशक ने मुझमें एक बड़ा बदलाव हुआ। ये वो दौर था जब मुझमें लोग मार-धाड़ देखना पसंद करने लगे। पर मेरा दिल तो उस दिलवाले पे चला गया जो मुझे दुल्हन बनाना चाहता था। शाहरुख़ खान ने मोहब्बत को अलग नाम दिया। कभी दोस्त बनकर उसने दिल जीत लिया तो कभी किरण का आशिक बनकर। कुछ और यादगार था तो सत्या और सरफ़रोश की कामयाबी।

नई सदी ने नए रंग लेकर आई। लगान में मैंने क्रिकेट खेलकर अंग्रेजों को मात दी तो चक दे इंडिया में हॉकी में विश्व कप का खिताब जीता। श्वास ने लोगों को रुलाया तो मुन्ना भाई एम बी बी एस ने लोगों को हंसाया भी। स्वदेस ने देशप्रेमी बनाया और तारे ज़मीन पर ने बच्चो को समझने का सबक सिखाया। मकबूल ने किरदारों से ऊपर उठ फिर कहानी पे जोर दिया तो ओमकारा ने बेहतरीन अभिनय का प्रदर्शन किया। रंग दे बसंती ने लोगों के मन में कुछ कर गुजरने का जूनून पैदा किया। मैं खुश था क्योंकि मेरी उड़ान इतनी ऊंची हो गयी थी जहाँ मुझे मेरे दो भागों के बीच का अंतर नहीं दीखता था। पिछले साल मुझे बहुत गौरव प्राप्त हुआ जब एक वर्ष में मेरे कई रूपों को लोगों ने भी पसंद किया और सराहा भी। पान सिंह तोमर और गैंग्स ऑफ़ वासेपुर से मेरा सिर फक्र से ऊंचा कर दिया। ये दौर ने मेरे दो भागों के बीच की हर दिवार को तोड़ दिया है। मुझमें फिर से वोही उमंग भर दी है जो पचास के दशक में थी।

एक साथी जो पिछले सौ बरस में नहीं बदला और हमेशा मेरे संग रहा वो है संगीत। भारतीए संस्कृति के साथ साथ संगीत मेरा भी प्रतीक बन गया। चाहे वो देश प्रेम हो, चाहे वो प्यार मोहब्बत की बातें और चाहे वो ज़िन्दगी की राह की गाथा संगीत ने मुझे हमेशा परिपूर्ण किया। ऐसे कई गीत है जो अमर हो चुके हैं और उनके साथ वो लम्हे, वो शक्श जो उनके साथ जुड़े हुए थे। ये गीत लोगों के दिल में इस कदर बसर करते हैं जैसे उनकी धड़कन हो। सौ बरस के बाद भी अगर में जीवेत हूँ और हर दिन, हर वर्ष मैं और भी जवान होता जा रहा हूँ, तो मुझे यकीन ये लोगों की मुझसे मोहब्बत का असर है। पर सितारों के आगे जहाँ और भी है, अभी इश्क के इम्तिहान और भी हैं।

-लक्ष्य