Friday, November 1, 2013

सागर

ज़िन्दगी वो सफ़र का नाम है जहाँ कई मुसाफिर मिलते हैं। कुछ उम्र भर साथ निभाते है तो कुछ पल भर के साथ के बाद कोई और रास्ते पे निकल जाते हैं। कुछ मुसाफिर ऐसे होते हैं जिन्हें हम याद नहीं करना चाहते पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें पल भर के लिए भी भुलाया नहीं जा सकता। वो चाहे हमारे ज़िन्दगी से कितने हि दूर क्यों न चले गये हों फिर भी वो हमारे ज़हन में हमेशा रहता हैं। ऐसे ही कुछ मेरे साथ हुआ।

बात उस समय की है जब मैं जबलपुर जिले में पढ़ने आया। उसके पहले मैं मंडला में पढ़ाई करता था जहाँ मैं अपने माता-पिता के साथ रहता था। बेहतर शिक्षा के अभाव के कारण मेरे पिता जी ने ये निर्णय लिया कि मैं अपनी आगे की शिक्षा बड़े शहर में करूँगा। उनके लिए वो निर्णय था और मेरे लिए हुकुम। मैं बेमन से जबलपुर आ गया। पिता जी ने एक बड़े स्कूल में नौवी कक्षा में मेरा एडमिशन करवा दिया। जबलपुर में ही मेरे मामा जी रहते थे जहाँ मेरे रहने की व्यवस्था हो गयी। स्कूल आने जाने के लिए एक रिक्शा भी लगवा दिया गया जो मुझे सुबह-सुबह घर से स्कूल ले जाता और दोपहर में वापस छोड़ जाता।

मेरा नया स्कूल अपने आप में ही एक शहर था। बड़ी-बड़ी बिल्डिंग थी जहाँ कई क्लासेज में सेकड़ो बच्चे पढ़ा करते थे । बड़ा सा एक मैदान था जहाँ फुटबॉल से लेकर क्रिकेट, सभी कुछ खेला जा सकता था। दुसरे खेलों के लिए पुख्ता इंतज़ाम थे। पढ़ाई करने के लिए एक बड़ी लाइब्रेरी भी थी। सुबह प्राथना के वक़्त सभी बच्चे अपनी कक्षा के मुताबिक एक सीध में खड़े हो जाते थे। सभी ने वोही खाखी शर्ट और पेंट पहना होता था। मुझे स्कूल यूनिफार्म कभी पसंद नहीं आई। ऐसा लगता था की जैसे हवलदारों का जमघट लगा हुआ है। ऊपर से हरे रंग की टाई जिसमें पीले रंग की धारियां होती थी। मेरे पुराने स्कूल में प्राथना हिंदी में होती थी पर नए स्कूल में इंग्लिश में प्राथना करते थे। और पूरे 15 मिनट के उस कार्येक्रम को असेंबली कहा जाता था।

मैं इंग्लिश में कमज़ोर था और जब इंग्लिश में असेंबली होती तो मैं बस औपचारिक तौर पर वहां खड़ा रहता था। अपने मन को बहलाने के लिए कभी इधर उधर देखता और कभी टीचर के शक को दूर रखने के लिए बिना कुछ बोले बस अपने होठों को हिलाता । रोज़ बालों की लम्बाई नापी जाती और बूट में चमक न होने पर मुर्गा बनाया जाता। कभी कभी तो नाखून को भी गोर से देखा जाता। जितने भी छोटे हो अगर साफ़ नहीं हुए तो खेर नहीं। मेरे पिता जी का निर्णय मेरी समझ के परे था। मुझे समझ नहीं आता था की क्यों वो मुझे इंग्लिश स्कूल में एडमिशन करवाना चाहते थे ? कभी-कभी गुस्सा भी आता और कभी-कभी उनकी याद से आँखें भर आती।

मुझे मेरे पुराने दोस्तों की बहुत याद आती। उनके साथ बिताये हुए लम्हे, वो मस्तियाँ भुलाना मुश्किल था और नए दोस्तों का न बन पाना मेरी मुश्किलों को और बढ़ा रहा था। मुझे लगता था कि सब मुझ पर हंस रहे हैं। मेरी कमज़ोर इंग्लिश को अपने मज़ाक का हिस्सा बना रहे हैं। मुझे ऐसे देखते थे जैसे कि मैं कोई अछूत हूँ। मानो मेरे कपड़ो से बू आती हो। इसलिए मैं सब दूर आखिर बेंच में अकेला बेठने लगा। पढ़ाई से तो वैसे भी मेरा मन ऊबता जा रहा था।

एक हफ्ते बाद मेरी क्लास में एक नया लड़का आया। क्लास में घुसते ही साथ उसने चारों तरफ नज़र घुमाई और फिर वो मेरी तरफ बड़ा और मेरी बाजू वाली सीट में बेठ गया। उसने मुस्कराते हुए मुझे अपना नाम बताया - सागर। मैंने छिड़ते हुए उसकी तरफ देखा और सिर हिला दिया। मुझे एहसास था कि उसे इस बात का बुरा लगा होगा पर मुझे दूसरों के जज्बातों से ज्यादा अपने अन्दर के रोष का झेलना था। पर मेरी उम्मीद के विपरीत उसने मुस्काते हुए चेहरा पे ज़रा सी भी सिलवटे नहीं आने दी। पल भर ही बाद उसने मेरे से इंग्लिश में पूछ लिया, "तुम यहाँ नए हो?" मैंने झिला के जवाब दिया, "क्या तुम पुराने हो?"

"हाँ! मैं तो यहाँ शुरुआत से पढ़ रहा हूँ।"

"एक हफ्ता हुआ पर मैंने तुम्हे तो नहीं देखा?"

"मेरी तबियत ठीक नहीं थी इसलिए घर पे था।"

सागर की इंग्लिश अच्छी थी और शायद इसी कारण वो मुझे पसंद नहीं आया। और इसलिए मैंने उसे नज़रंदाज़ करने लगा। वो रोज़ मेरी बाजू वाली सीट पर बेठता और मेरे से बात करने की कोशिश करता पर मैं हर सवाल का जवाब एक सवाल से ही करता। कुछ दिन में वो समझ गया कि मुझे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। पर अचम्भा तो इस बात का था की क्लास में उसके दोस्त तो थे पर किसी को उसमें दिलचस्पी नहीं थी।

एक दिन लंच ब्रेक में मैं अपना टिफ़िन बॉक्स से खाना खा रहा था जब अचानक ही सागर पीछे से दोड़ते हुए आया और मुझे धक्का देते हुए चला गया। मेरे हाथ से टिफिन बॉक्स छूट गया और पूरा खाना ज़मीन पर गिर गया। ये देख मुझे गुस्सा आया और मैंने सागर के पीछे दोड़ लगा दी। जब उसने मेरा टिफिन को गिरते हुए देखा तो वह रुक गया। मैंने उसे जोर से धका दिया जिसके कारण वो ज़मीन पर गिर गया। और फिर मैंने उसे उठाया और जोर से उसके गाल पर एक थपड़ जड़ दिया। गुस्से में मैंने उसकी कॉलर पकड़ी और वो छुड़ाने की कोशिश करने लगा। हमारे बीच हाथा-पाई चालू हो गयी। तभी कुछ दुसरे सहपाठियों ने हमें एक दूसरों से अलग करवाया। मेरा गुस्सा का पारा चढ़ा हुआ था और वो गुस्सा मैंने सागर के ऊपर उतारने की पूरी कोशिश की। मेरी कोशिश का अंत तब हुआ जब एक टीचर ने मुझे पकड़ कर अलग किया। हम दोनों को प्रिंसिपल के सामने ले जाया गया। मुझे अपने किये पे कोई शर्मिन्दिगी नहीं थी और न ही किसी अंजाम का भय। प्रिंसिपल को पूरी घटना का ब्यौरा मिल चूका था और इसलिए वो मेरी तरफ बड़े। पर वो कुछ मुझे कहते उसके पहले ही सागर ने कहा, "सर, इसमें मेरी गलती है, मैं ही ध्यान से नहीं खेल रहा था जिसके कारण लक्ष्य का खाना गिर गया और उसे गुस्सा आ गया। मुझे माफ़ करे"

प्रिंसिपल ने एक बार सागर की तरफ देखा, फिर अपनी ऐनक उतारी और मुझसे कहा, "ये स्कूल है कोई लड़ाई का मैदान नहीं। अगली बार ऐसा हुआ तो सीधे बाहर कर दूंगा। ध्यान रहे।" प्रिंसिपल ने सागर के सिर पर हाथ फेरा और हमें जाने के लिए कहा।

पुराने स्कूल में मैंने कभी डांट नहीं खाई थी। सभी टीचर मुझे पसंद करते थे और प्रिंसिपल का तो मैं चहिता था। हमेशा अव्वल आना मेरी फितरत थी। पढ़ाई से लेकर खेल कूद सभी चीज़ों में मन लगता था। पर नए स्कूल में शुरुआत अच्छी नहीं रही। पहले ही कुछ दिनों में प्रिंसिपल के पास जाने की नौबत आ गयी और अपने मन को समझाने के लिए मैंने सारा दोष सागर पर मढ़ दिया। इस घटना के बाद हमारे बीच जो छोटी-मोटी बातचीत होती थी वो भी बिलकुल बंद हो गयी। वो मेरे पास बेठता तो था पर जैसे हमारे बीच शांत युद्ध छिड़ा हो।

इस पूरी घटना ने मुझे क्लास में हीरो बना दिया। जो मुझे गिरी हुई निगाहों से देखा करते थे अब वोही दोस्ती का हाथ बड़ा रहे थे। मैं भी खुश रहने लगा था। अब लंच ब्रेक में और मस्ती होती थी। धमा-चोकड़ी मचाई जाती थी। कभी किसी के टिफिन बॉक्स से खाना छीनकर खाते तो कभी सामने बेठे हुए बन्दे की शर्ट इंक पेन से खराब कर देते। दो पीरियड के बीच के समय में कागज़ की गोलियां बनाकर एक दूसरों पर फेंकते। समय बीतता जा रहा था और मैं एक नए शहर के एक नए स्कूल का एक पुराना विद्यार्थी बन गया। पर एक चीज़ जो मुझे खटक रही थी वो था सागर। वह क्लास में बहुत कम लोगों से बात करता था। न कोई मस्ती न कोई उधम, बस पढ़ाई और पढ़ाई। दूसरी तरफ मैंने पढ़ाई करना जैसे छोड़ ही दिया था। क्लास में पीछे होते जा रहा था। पर मस्ती का इतना सुरूर था कि पढ़ाई करना की ज़रुरत महसूस नहीं हुई और ऊपर से घर में कोई बोलने वाला भी नहीं था। मामा और मामी जी को अपने काम और अपने बच्चों से फुरसत ही नहीं मिलती।

खेर कहानी आगे बढ़ाते हैं और उस दिन की बात करते हैं जब हमारी क्लास पिकनिक के लिए कुछ 100 कि मी दूर एक बोटैनिकल बगीचे गई। वहां जाकर हमारी क्लास टीचर ने अपने ज्ञान के सरोवर को बहाना चालू किया। वो बगीचे में उगाये गये भिन भिन प्रकार के पेड़ और पोधे के बारे में बता रही थी। पर मेरा ध्यान कहीं और था। बगीचे के पीछे मुझे जंगल नज़र आ रहा था। और मेरी इच्छा हो रही थी कि जंगल की एक बार सेर करी जाए। पर मेरे साथ चलने को कोई राज़ी नहीं था। टीचर के सख्त निर्देश थे कि बगीचे से बहार कोई भी बिना इजाज़त के न जाये वरना अंजाम बहुत बुरा होगा। मैंने ठान ली कि कुछ भी हो जंगल तो घूम कर आना है। टीचर की नज़रों से बचकर मैं जंगल की तरफ निकल गया। धीरे धीरे मैं आगे बढ़ता गया। पहले छोटे-छोटे पोधे, सुखी घांसों के बीच भिकरे मिले, फिर बड़े पेड़ो के नीचे उन्ही की टूटी सूखी टहनियां पड़ी मिली। मैंने एक लम्बी सी टहनी हाथ में ली और आगे बढ़ता गया। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता जा रहा था वैसे-वैसे जंगल और घना होता जा रहा था। समय गुज़रता गया और मेरे कदम नहीं थमे। मैं बस मदहोश अपनी ही मस्ती मैं चलता गया। कुछ देर बाद मुझे अचानक एहसास हुआ कि मैं काफी दूर निकल आया हूँ। जब मैंने अपने चारों ओर देखा तो बस मुझे घना जंगल नज़र आ रहा था। दूर दूर तक कोई दिशा कोई रास्ता नहीं समझ आ रहा था। मैं घबरा गया और आँखें नाम हो गई। माथे से पसीना टपकने लगा। जंगली पोधों की लटकती बेलों ने मेरे हाथों को खरोच भी दिया था जो अब जलन कर रहा था।

मैं असमंजस में था। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस तरफ जाऊं। मैं एक कदम दाईं तरफ बढाता और फिर रुक जाता। फिर किसी दूसरी तरफ बढ़ता और फिर रुक जाता। घबरा कर मैं एक पेड़ के नीचे बेठ गया। तभी कहीं से मेरे नाम की आवाज़ सुनाई दी। कुछ पल बाद फिर से वोही आवाज़ वापस आई। मैं तुरंत खड़ा हुआ और उस आवाज़ की तरफ तेज़ी से भागा।

जो मुझे आवाज़ दे रहा था वो मेरे सामने खड़ा था। वो और कोई नहीं पर सागर था। मैंने सागर से पुछा, "तुम यहाँ क्या कर रहे हो? कहीं तुम मेरा पीछा तो नहीं कर रहे।"

"मैंने तुम्हे इस जंगल की तरफ आते देखा। इसलिए तुम्हे बुलाने आ गया।"

जितना जल्दी मैं खुश आवाज़ सुनकर हुआ था उतनी ही जल्दी मेरी उदासी का सबब सागर का ये जवाब था। मैंने सूखी टहनी हाथों से झटका और कहा, "पर लगता है हम इस जंगल मैं फँस गये हैं।"

"चिंता मत करो।" कहते हुए सागर ने अपने उँगलियों में एक चाक दिखाई। पर मैं कुछ समझ नहीं पाया। और हँसते हुए कहा, "मज़ाक मत कर .." और फिर मैं कुछ और बोलता उसने मुझे इशारे से एक पेड़ की और देखने के लिए कहा। जब मैंने उस पेड़ की और देखा तो पेड़ पर एक क्रॉस का निशान मिला। एक ही पल में मेरी आँखें ख़ुशी से चमक गयी। मैं समझ गया की सागर ने आते वक़्त अपने रास्ते में आने वाले पेड़ो पर क्रॉस का निशान बना दिया जिसके कारण हम वापसी का रास्ता आसानी से ढूंढ लेंगे। मुझे एहसास हुआ कि सागर एक अच्छा दोस्त है और मैंने उसके साथ बुरा बर्ताब किया था।

"अब चलें" सागर ने मुस्कराते हुए कहा और हम क्रॉस के निशान के साहारे वापस चलने लगे। मैं आगे चल रहा था और सागर पीछे। हम अभी भी बात नहीं कर रहे थे। मैंने सोचा की येही वक़्त है उससे माफ़ी मांगने का। मैंने अपने कदम थामे और पीछे मुड़ा पर मैं कुछ कह पाता उससे पहले ही सागर के मुहं से चीख निकली। मैंने देखा कि एक सूखी टहनी ने उसके हाथ को बुरी तरह से छील दिया और उसके हाथ से खून निकल रहा था। मैं उसकी मदद करने आगे बड़ा पर तभी सागर ने जोर से चिलाया और कहा, "नहीं! मेरे पास मत आना" मैं समझ नहीं पा रहा था पर मुझे डर था की घाव गहरा न हो इसलिए मैंने कहा, "तुम्हे चोट लगी है मुझे दिखाओ मैं उस पे पट्टी बाँध देता हूँ" मैंने जेब से रुमाल निकाला और उसकी तरफ बड़ा पर फिर उसने मुझे अपने करीब आने से मना कर दिया और बस रुमाल को अपनी तरफ फेंकने का इशारा किया। सागर ने रुमाल से अपने हाथो को कस कर बाँध लिया।

"हमें चलना चाहिए वरना बहुत देर हो जाएगी।" सागर ने कहा और हम चलने लगे। पर मेरे मन में जिज्ञासा का कीड़ा घर कर गया था। मैंने पुछा, "तुम अछूत हो क्या?" सागर ने हँसते हुए न कर दिया। फिर मैंने पुछा, "कहीं तुम ये तो नहीं समझते कि मैं अछूत हूँ" सागर ने कहा, "अगर तुम अछूत होते तो मैं तुम्हारा रुमाल नहीं लेता।" मैंने सिर हिला दिया और फिर मैंने हँसते हुए पूछ ही लिया, "कहीं तुम्हे छुआ छूत की बिमारी तो नहीं?" सागर ने कुछ नहीं कहा। मैंने फिर कहा, "क्यों क्या हुआ, कुछ बोलते क्यों नहीं।" सागर ने आखिर जवाब दे दिया, "मेरा खून दूषित है। और मुझे डर था कि अगर मेरा खून तुम्हारे खून से मिल जाता तो शायद तुम्हारा खून भी दूषित हो जाता।" मैंने अपने हाथों के खरोचों को देखा और कुछ बोल नहीं पाया। हम वापस बगीचे सही समय पर पहुँच गए थे। घर जाते हुए मैं बस गुमसुम सोचता रहा।

दो दिन की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुला तो मेरी निगाहें सागर तो देख रही थी। पर वो नहीं दिखा। मुझे उससे माफ़ी मांगनी थी। मुझे उससे दोस्ती करनी थी। पर वो उस दिन स्कूल नहीं आया। दुसरे दिन असेंबली में भी हम सभी खड़े थे और आज भी मेरी निगाहें सागर को ढूंढ रही थी। पर मेरा दिल उस समय टूट गया जब प्रिंसिपल ने सब के सामने ये घोषणा कि अब हमारे बीच सागर नहीं रहा। तबियत बिगड़ने के कारण उसकी प्रातः काल मौत हो गयी। उसकी आत्मा की शान्ति के लिए दो मिनट का मौन रखने के लिए कहा गया। पर मैं सदमे था। मेरी आँखों मैं पानी था जिसे मैं रोक नहीं पाया। मैंने हिम्मत की और अपना बैग उठाया और बहार गेट की तरफ दोड़ लगा दी। स्कूल से बहार निकलते ही मैंने रिक्शा पकड़ा और सीधे सागर के घर गया।

सागर सफ़ेद चादर में लिपटा हुआ था। मैंने दूर से ही हाथ जोड़े और अपने कर्मों के लिए माफ़ी मांगी। अचानक मेरी नज़र सफ़ेद चादर से बहार उसके हाथ पर पड़ी। उसके हाथ में मेरा रुमाल बंधा हुआ था। मैंने आँखें बंध की, आंसू पोछे और वापस घर लौट आया।

- लक्ष्य

Monday, October 14, 2013

धर्म और स्वार्थ

"वक़्त के साथ-साथ रिश्तों के कुछ तार पतले होने लगते हैं। चाहे वो रिश्ता खून का हो या दिल का या सिर्फ मूंह-बोली का। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किस तार को पतले होने से बचाना है और कौन-सा तार हमारे जीवन में एक किरण का भी कारण नहीं बनता।" मैंने ये बात रवीश से कही। रवीश मेरी ही बिल्डिंग के चोथे माले में रहता है और जो दूसरो की तरह मेरी राय को तवज्जो देता है और अक्सर अपनी उलझनों को मेरे संग बात कर सुलझाने का प्रयास करता है।

"मुझे तो दोनों तारों से किरण मिलती है। मैं दोनों तारों को पतला नहीं होने दे सकता। मैं दोनों रिश्तों में से किसी एक भी छोड़ नहीं सकता। एक तरफ रेहान है जो मेरी जान भी है और जीवन भी और दूसरी तरफ मुस्कान है जो मेरा प्यार है, जिसके साथ में अपना जीवन गुजारना चाहता हूँ और जिससे मैं शादी करना चाहता हूँ।" रवीश ने ये कह मुझे घोर असमंजस में डाल दिया। रवीश कुछ साल पहले ही इस शहर में आया था। शायद कुछ ८ साल पहले। उस समय रेहान २ साल का रहा होगा। रेहान उसका बेटा है पर रेहान की माँ कौन थी और वो कहाँ है रवीश ने कभी ज़िक्र नहीं किया और कोई पूछता तो उसको बातों में उलझा देता और ये पहेली आज तक बनी हुई है। सत्य क्या है मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की। कभी-कभी सत्य आग में घी डालने का काम करता है। वो रिश्तों में मिठास के जगह ज़हर घोल देता है। मैं ये नहीं कहता कि हमें झूठ की बुनियाद पे रिश्तों के मकान खड़े करने चाहिए पर ये ज़रूर मानता हूँ कि कुछ सत्य अच्छे-भले पक्के माकन में सीडन की तरह फ़ैल जाते हैं और अन्दर अन्दर ही दीवारों को खोखला कर देता हैं सत्य तो ये है की रवीश ने रेहान को माँ-बाप दोनों का प्यार दिया। उसे कभी किसी चीज़ की कमी का एहसास नहीं होने दिया। इस दौरान उसने दूसरी शादी करने का सोचा भी नहीं। पर कब तक वो रेहान के लिए जीता रहेगा उसकी उम्र भी कुछ ज्यादा नहीं है। ३३-३४ के आस-पास रवीश होगा। अभी तो उसके सामने पूरी ज़िन्दगी पड़ी है

"मैं धर्म और स्वार्थ के अधर में फँस गया हूँ। धर्म कहता है कि मैं अपने प्यार का बटवांरा नहीं कर सकता हूँ जो रेहान का है उसे मिलना चाहिए पर स्वार्थ कहता है कि जीवन बहुत लम्बा है और सारी उम्र अकेले नहीं जिया जा सकता कब तक रेहान मेरे साथ रहेगा कुछ समय बाद तो वो मुझे छोड़ कर चला जाएगा तब मैं क्या करूंगा जब शरीर साथ देना बंद कर देगा? तब मैं कैसे जीवन की कठिन डगर पर अकेला चलूँगा। आप ही बताइए मैं क्या करूँ?"

"तुम मुस्कान को घर पे बुलाते क्यों नहीं? रेहान से जब वो मिलेगी तो हो सकता है जो तुम सोच रहे हो वो संकट कभी पैदा ही ना हो। और हो भी सकता है कि वो एक दूसरों को पसंद भी करें और तुम्हारी समस्या का समाधान भी मिल जाये"

"मैं ये कोशिश भी कर चूका हूँ। मुस्कान कुछ महीनों से मेरे घर आती जाती है मुझे लगा कि मुस्कान के घर आने से वो एक दूसरों से घुल मिल जाएँगे ताकि आगे साथ रहने में उन्हे कोई दिक्कत नहीं होगी। दोनो की आपस में काफ़ी बनने भी लगी थी और मुझे लगा कि ये सही वक़्त है आगे बात बढ़ाने का और इसी उद्देश् से पिछले हफ्ते मैने मुस्कान को रात के खाने के लिए घर पे बुलाया था पर जब मैंने हमारी शादी की कही तो मानो चाँद से उसकी चांदनी चली गयी हो। बारिश से किसी ने उसका पानी छीन लिया हो और मानो फूलों से उसकी खुशबू किसी ने छीन लिया हो। कुछ इस तरह रेहान के चेहरे से ख़ुशी का एक-एक कतरा चला गया । उसने उसके बाद खाने का एक दान भी मूंह में नहीं डाला। मुस्कान को भी एहसास हो गया था कि रेहान इस बात से ज़रा भी खुश नहीं है कि मैं और वो शादी करना चाहते हैं। उसे लगा कि रेहान को समय चाहिए इस बात को समझने के लिए। मुस्कान ने सोचा कि उसका उस वक़्त चले जाना बेहतर होगा पर जाने से पहले उसने रेहान से हाथ मिलाते हुए पूछ लिया कि क्या वो बुरी है? और रेहान ने धीरे से सर हिलाते हुए न कह दिया। फिर मुस्कान ने पुछा कि फिर क्यों वो हमारी शादी की खबर से खुश नहीं है? तब रेहान ने उससे अपने हाथ को झटके से छुड़ाकर मुस्कान को धक्का देते हुए मेरे से चिपक गया और कहा कि "कोई मुझसे मेरे पापा को छीन नहीं सकता। कोई मेरे पापा को मुझसे दूर नहीं ले जा सकता" और फिर जो उसने कहा वो सुनते ही मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी। उसने कहा "मैं मर जाऊंगा पापा अगर आप से अलग हुआ तो, मैं मर जाऊंगा, मैं मर जाऊंगा"

अपनी व्यथा को सुनाते सुनाते रवीश के आँखों से आंसू छलक पड़े। पिता अपने बच्चों के लिए क्या कुछ नहीं करता। खुद भूखा सो जाता पर अपने बच्चों का पेट खाली नहीं होने देता। अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर वो अपने बच्चों की हर ख्वाइश को पूरा करने में जुटा रहता है। येही पिता का धर्म है। पर क्या पुत्र का ये धर्म नहीं है कि जब पिता को उसकी ज़रुरत हो तो वो उसका सहारा बने उसका साथ दे और उसकी मदद करे। जब राजा ययाति को आजीवन वृद्ध-अवस्था का श्राप मिला तो उसके पुत्र पुरु ने उसकी मदद के लिए आगे आया और अपनी जवानी ययाति को दे दिया। राम ने पल भर के लिए भी नहीं सोचा और अपने पिता के वचन का मान रखने के लिए चौदह वर्ष वनवास काटने के लिए तयार हो गये। जब पुत्र अपने पिता से ढेर सारी अपेक्षाएं रखता है तो क्या पिता को इतना भी अधिकार नहीं कि वो अपने पुत्र से थोड़ी बहुत अपेक्षा रख सके?

"तुम रेहान से बात करके देखो। मुझे लगता है वो तुम्हारी परिस्थिति समझ सकता है। शायद उसे थोडा समय लगेगा पर मुझे यकीन है कि वो मुस्कान को अपना लेगा," मैंने रवीश को समझाते हुए कहा।

"पिछले ६ महीनो से मुस्कान मेरे घर आती जाती है। मुझे लगा कि वो एक दूसरो को इतनो दिनों में समझ लेंगे और मुझे एहसाश होने भी लगा था कि वो एक दूसरो को पसंद करते हैं, पर मेरा विश्वास चकनाचूर हो गया जब मैंने उसे हमारी शादी की बात बताई। उस दिन से मैं उससे कई बार बात करनी की कोशिश कर रहा हूँ पर मैं खुद असमंजस में पड़ जाता हूँ। मुझे खुद यकीन नहीं है कि मैं सही कर रहा हूँ कि नहीं। कभी लगता है कि मैं कितना स्वार्थी हो गया हूँ जो अपने धर्म को भूल अपने ही पुत्र के दुःख का कारण बना हुआ हूँ"

"धर्म को परिभाषित करना मुश्किल ही नहीं असंभव है। उसके दायरे को सीमित नहीं किया जा सकता। धर्म समय के साथ, परिस्थिति के साथ बदलता है। धर्म कहता है कि किसी भी निर्दोष जीव जंतु को मारना पाप है पर ये कसाई का धर्म है कि मवेशियों को काट कर अपने घर के लालन-पोषण करे। जो बदलता नहीं है वो धर्म का मूल सिधान्थ है जो ये कहता है कि हमें वो कार्य करना चाहिए जिससे किसी की हानि न हो, किसी को आजीवन कष्ट और दुःख का सम्भोग न करने पड़े। हो सकता है किसी कार्य के दौरान किसी को क्षण भर दुःख का भोग करना पड़े पर इसका अभिप्राय ये नहीं होता कि वो कार्य धर्म के विरुद्ध है। सूर्य ग्रहण की तुलना काली रात से नहीं की जाती। पतझड़ आकाल का पर्यावाची नहीं है। ये रेहान समझाना को होगा और अगर तुम नहीं समझा सकते तो मैं कोशिश करने के लिए तयार हूँ"

अगले दिन मैं रवीश के घर पहुंचा। रेहान अपने कमरे में पढाई करने में व्यस्त है। मैंने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा कि "इसको ऐसे करते हैं" उसके हाथ से पेंसिल लिया और कुछ गणित के प्रश्नों को हमने साथ में हल किए। समय देख मैं रेहान से पुछा, "अच्छा रेहान ये बताओ, कि तुम्हे सब से ज्यादा क्या करना पसंद है?"

रेहान की आँखों में अचानक से एक चमक आय गयी और उसका चेहरा सूरजमुखी फूल की तरह खिल गया और उतेज्जित होकर उसने कहा, "मुझे आसमान में हवाई जहाज को देखना बहुत पसंद है। जब भी मैं आसमान की ओर देखता हूँ तो मेरी नज़र किसी जहाज को ढूंढती है और जैसे ही कोई जहाज मुझे दिखाई देता है तो मैं दोड़ कर छत पे जाता हूँ और जहाज को देखता रहता हूँ।"

"और जब वो जहाज तुम्हारी आँखों से दूर चला जाता है, आसमान के किसी मंडल में खो जाता है तो क्या तुम्हें दुःख नहीं होता?"

रेहान ने अपना सर हिलाते हुए मेरे प्रश्न का उत्तर हाँ में दे दिया। "जानते हो हर व्यक्ति के जीवन में एक न एक जहाज होता है जिसे वो अपने से कभी दूर नहीं करना चाहता। जिसे वो हमेशा अपने साथ रखना चाहता है। जैसे मेरे जीवन में मेरा जहाज मेरी कवितायेँ, मेरी कहानियां है। कोई इन्हें मुझसे दूर कर देगा तो मुझे बहुत दुःख होगा। वो तुम्हारे माले में मिश्रा अंकल रहते हैं जिसके घर की घंटी बजा कर तुम भाग जाते हो, जिनको तुम लोग 'खूसट बाबा' के नाम से चिडाते हो, जिन्हें परेशान करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते"
"वो भी तो कितना हमें चिल्लाते हैं, यहाँ मत खेलो, ऐसा मत करो वैसा मत करो बोलते रहते हैं"
"पर जानते हो उनका जहाज कौन है?"
"कौन," रेहान ने आश्चर्य से पुछा?
"तुम!"
"मैं! वो कैसे,"
"कुछ दिन पहले जब तुम बीमार पड़े थे तो वो दिन में ४-५ बार आकर तुम्हारा हाल पूछते थे। तुम जिस दिन मस्ती नहीं करते तो वो तुम्हारे पिता से पूछने लगते है कि तुम्हे कुछ हुआ तो नहीं। तुम्हे नहीं देखते वो परेशान हो जाते हैं, दुखी हो जाते है। वैसे ही तुम्हारे पिता का भी एक जहाज है - मुस्कान। जैसे तुम्हे जहाज को देखते रहना पसंद है वैसे ही तुम्हारे पापा को मुस्कान पसंद है और वो उसे कभी दूर नहीं होने देना चाहते।"
"अगर उन्होंने शादी कर ली तो वो मुझे हॉस्टल भेज देंगे और फिर कभी-कभी ही मुझसे मिलें आयेगे," रेहान ने घबराते हुए कहा
"ये तुमसे किसने कहा?"
"चिराग ने"
"कौन चिराग?"
"मेरे स्कूल में पढ़ता है और हॉस्टल में रहता है। उसके पापा ने दूसरी शादी कर ली और उसे हॉस्टल में डाल दिया। उसे हॉस्टल अच्छा नहीं लगता। वो तो कई बार भाग जाने की भी सोचता है। और उसके पापा उससे मिलने नहीं आते बस पैसे भिजवा देते है"

"हाहा! तुम्हारे पापा तुम्हारे साथ ऐसे हरगिज़ नहीं करेंगे। वो तो तुमसे बहुत प्यार करते है वो तुम्हे कैसे दूर जाने देंगे। तुम्हारे पापा मुस्कान से बहुत प्यार करते हैं और उससे शादी करना चाहते है पर वो शादी तब तक नहीं करेंगे जब तक तुम राज़ी नहीं होते। क्या तुम्हारे दोस्त चिराग से उसके पिता ने मंज़ूरी ली थी? नहीं न, फिर क्यों ऐसा सोच रहे हो कि जो चिराग के साथ हुआ वो तुम्हारे साथ भी होगा। जब तुम्हे हल्का सा भी बुखार आ जाता है तो वो रात दिन सोते नहीं है बस तुम्हारे पास बेठे रहते हैं। तुम्हारा डर बेबुनियाद है। मैं रवीश को बहुत अच्छे से जानता हूँ वो कभी तुम्हे दूर नहीं भेजेंगे और अभी भी तुम्हे मेरी बातों पे यकीन न हो तो मैं तुमसे वादा करता हूँ, जिस दिन रवीश ने तुम्हे दूर भेजने की बात भी कही तो तुम मुझे बताना। उस दिन तुम्हारे पापा की खेर नहीं होगी,मैने ये बात रेहान से पूरे विश्वास के साथ कही जिसे सुनते ही उसके रेहान के चेहरे पे हलकी से मुस्कान आ गयी।

फिर मैंने गंभीर स्वर में अपनी बात उसके सामने रखी और कहा, "तुम अब बड़े हो गये हो जैसे तुम्हारे पापा तुम्हारी हर इच्छा का ध्यान रखते है उन्हें पूरा करते है वैसे ही तुम्हारा कर्त्तव्य है कि तुम भी उनकी इच्छा को पूरा करो। और उनकी इच्छा है कि मुस्कान इस घर में हमेशा के लिए आ जाये और वैसे भी मुस्कान के यहाँ आने से तुम्हारे पापा तुमसे दूर नहीं होंगे बल्कि तुम्हे एक नया दोस्त मिल जायेगा। कुछ समझे?" रेहान ने सर हिलाते हुए हाँ भर दी और मुझे एक पल लगा कि उसे अपनी गलती पर अफ़सोस भी है।
"चलो, कोई तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है," कहते हुए मैने अपनी बात पूरी करी

मैं रेहान का हाथ थामे कमरे से बहार आ गया। बहार रवीश और मुस्कान चेहरे पर कई शिकन लिए हुए बेठे थे। हमें देख वो खड़े हो गये। मैंने रवीश के पास जाकर कहा, "तुमसे अच्छा पिता मैंने नहीं देखा और चाहता हूँ तुम उतने ही अच्छे पति भी साबित हो। मैं चलता हूँ।"

जाते हुए मैंने पलट कर देखा कि रेहान सर झुकाए हुए रवीश के पैरों से लिपट गया और उसने कहा, "मैं बहुत खराब हूँ पापा, मुझे माफ़ कर दो।"
रवीश ने उसके चहरे को अपने हाथों में लेकर कहा, "नहीं, तू तो सबसे अच्छा बेटा है और मैं तुझे कभी छोड़ कर नहीं जाऊंगा"
रेहान ने मुस्कान की तरफ देखते हुए कहा, "मुझे माफ़ कर दो। मैने उस दिन आप के साथ गलत किया। मैं डर गया था पर अब मुझे यकीन है कि आप को मेरे पापा को मुझसे दूर नहीं करोगी।"

मैंने दरवाज़ा खोला और बहार चला आया। कई रिश्तों के तार को पतले होने से बचाना मुश्किल लगता है पर यकीन मानिये थोड़े से प्रयास से कई मुश्किलें दूर हो जाती है


--लक्ष्य

Monday, July 8, 2013

परदे के पीछे

जाऊं कि नहीं। अपने घर के सामने वाले घर की छत को देखते हुए सोचा मैंने। सामने वाले घर की छत पर टीवी का एंटीना में एक पतंग फंसी हुई है। आज मेरी पतंग ने मुझे बहुत जल्दी धोका दे दिया और आसमान को छूने से पहले ही सागर के लहर की तरह लहराते हुए कहीं दूर चली गयी। आसमान जो विशाल नीली चादर ओढ़े था अब उसकी चादर में रंग बिरंगे पतंगों के धबे लग हुए है। गर्मियों की छुट्टियाँ, शाम का वक़्त और आसमान में पतंगों का जमघट एक अलग ख़ुशी का अनुभव देता है। अलग अलग रंगों से भरी पतंगे आसमान पर चादर की तरह बिछ जाती है। कहीं दो छोटी पतंगे गले डाले आपस में बात करते हुए मिलेंगी तो कहीं दो पतंगे आपस में रकीबों की तरह झगडा करते हुए। और कहीं एक पतंग होगी जो सबसे अलग सबसे जुदा शान से बहुत ऊँचा उड़ रही होगी। जिसे अपने परवाज़ की कोई सीमा तय करने की ज़रुरत नहीं पड़ती और न ही किसी और पतंग से कटने का डर सताता। बस उसी पतंग की तरह मेरी पतंग भी आसमान को छूना चाहती थी पर उसके पहले ही उसने मेरे से नाता तोड़ लिया। नए पतंग खरीदने के पैसे नहीं है । मैंने अपने पेंट की जेब को टटोला भी पर आज बदकिस्मती से मेरी जेब खाली मिली।

मैंने अपने छत की मुंडेर से झाँक कर देखा कि सामने वाले घर का दरवाज़ा खुला हुआ है। अक्सर बच्चे उस घर में अकस्मात ही घुसने की कोशिश नहीं करते। उस घर में घुसना मतलब जान जोखिम में डालना। वहां वकील साहब रहते हैं। मैंने उन्हें कभी देखा नहीं, बल्कि मेरे दोस्तों में से किसी ने उन्हें नहीं देखा। पर उनका डर सभी बच्चो पर भरपूर है शायद इसलिए क्योंकि सभी कहते हैं कि वो बहुत खूसट हैं। उनके बारे में सभी के अलग अलग ख्याल हैं। कोई कहता है कि वो मर गये हैं और उनका भूत वहां रहता है और कोई कहता है कि वो बच्चों को अपने पास केद कर लेते हैं। कोई ये भी कहता है कि उनके पास एक बड़ी सी बन्दूक है जिससे उन्होंने ने काफी लोगों को मारा है और कोई उनके घर में जबरदस्ती घुसने की कोशिश करता है उसे वो गोली से मार देते हैं। पर मैं सुनी सुनाई बातों पे विश्वास नहीं करता हूँ। मैं तेरहा साल को हो गया हूँ और मुझे समझ में आता है कि बचपन में सुनाई हुई कहानियों में सचाई कम और कल्पनाओं का जंजाल ज्यादा होता था। और फिर मेरे पिता जी ने भी एक बार कहा था कि वकील साहब की तबियत ठीक नहीं रहती है जिसके कारण वो घर से बहार नहीं निकलते। जो मेरे दोस्त उनके किस्से और कहानियाँ सुनाते है उन पर वो जोर से ठहाका लगाते हुए कहते हैं कि मेरे दोस्तों की कलपनाएँ दिलचस्प है पर सच नहीं।

पूरा साहस जुटा कर मैंने सामने वाले घर के अन्दर जाने का फैसला किया। दरवाज़ा खुला हुआ है और कोई नहीं अन्दर दिख रहा। दरवाज़े के सामने ही ऊपर जाने की सीड़ी भी है। मैं दबे पाँव धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाता हुआ पहली मंजिल पहुँच गया। पर छत एक मंजिल और ऊपर है। पहली मंजिल में दो कमरे है। एक कमरे का दरवाज़ा बंद और दुसरे कमरे में परदा लगा हुआ है। मैं आगे बड़ने लगा तभी मेरे कानों में घुँघरू की आवाज़ आई। दुसरे कमरे से आती मधुर ध्वनि कानों के पर्दों को आनंदित करने लगी। मुझे संगीत का शौक रहा है जिसके कारण मुझसे रहा नहीं गया। मैंने कमरे के परदे को थोडा-सा उठाया और अन्दर झाँक कर देखा। ये तेरह साल की उम्र की विवशता है या शरीर में बदलते हुए क्रियाओं का प्रभाव कि मैं अंजली को देख मन्त्रमुग्ध हो गया। अंजली वकील साहब की पोती है। वो कुछ ३-४ साल मेरे से बड़ी है। जब हम गली में खेलते हैं तो वो अक्सर बरामदे में आकर खड़ी हो जाती है और मंद-मंद मुस्कराती रहती है। शायद उन्हें अपने बचपन के दिन याद आते होंगे। मेरे सभी दोस्त उन्हें अंजू दीदी बुलाते हैं पर मैंने उनसे कभी बात नहीं करी और न जाने क्यों मेरा दिल उन्हें दीदी बुलाने से कतराता है। बड़ी हुई तो क्या हुआ, हर कोई दीदी नहीं होता। अक्सर मेरे दोस्त उनके बारे में बात करते हैं पर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया। ऐसी बात करना छिछोरापन लगता है। पर मुझे ये पता नहीं था, और शायद मेरे कोई दोस्त को पता न होगा कि अंजली को नाचने का भी शौक है। और वो बहुत अच्छा नाचती है। उनके पैरों से आती झंकार एक समां बाँध रही है। उनका कमरा छोटा पर काफी खाली है। एक पलंग है जिस के बाजू में एक मेज़ राखी है। मेज़ पे कुछ किताबें और एक फूलों का गुलदस्ता रखा हुआ है। गुलदस्ते में सिर्फ गुलाब के फूल हैं। कमरे में एक अलमारी भी है जो बंद है। कमरे के एक कोने में टेप-रिकॉर्डर रखा है। अचानक टेप-रिकॉर्डर बंद हो जाता है और उसके साथ ही घुँघरू की आवाज़ भी बंद हो जाती है और मेरी आँखों को पलके झपकने का मौका मिलता है। पर मुझे एहसास हुआ कि मुझे तुरंत घर से निकलना चाहिए। पतंग को छत से निकालने का प्रयास छोड़ मैं नीचे की और भागा। मैं दरवाज़े से बहार जाने ही वाला था कि किसी ने मुझे आवाज़ दी। ये तो दादी जी है। दादी जी वकील साहब की धर्मपत्नी है और मेरे घर में वो अक्सर मेरी दादी से मिलने आती रहती हैं।

"लक्ष्य, तू कब आया?" दादी जी ने पुछा। मैंने अपने हाथो से माथे के पसीना को पोछा और कुछ क्षण सोचने के बाद कहा, "मैं आपको को देखने आया था। वो दादी ने आपको याद किया है।"
"अच्छा ठीक है। मैं आती हूँ।" दादी जी ने कहा और अन्दर चली गयी। मैंने देखा की सामने एक कमरा है जहाँ काली-सफ़ेद धारी वाला परदा लगा हुआ है पर अन्दर बत्ती जल रही है। कमरे से आती खांसने की आवाज़ सुनकर मैंने फिर निकल जाने का प्रयास किया पर फिर दादी जी ने आवाज़ देकर बुला लिया।
"बेटा, एक काम कर। दादा जी के पास बेठ जा। मैं तेरी दादी से मिल कर आती हूँ। उन्हें कोई ज़रुरत होगी तो मुझे तुरंत बुला लेना।"

मैं कुछ विरोध कर पाता उससे पहले ही दादी जी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे वकील साहब के कमरे में ले गयी और वहीँ रखी कुर्सी में बेठ जाने के लिए कहा। कुर्सी से कुछ दो फीट दूर एक पलंग है जिस पर वकील साहब लेटे हुए हैं। उनके शरीर से लग रहा है की वो काफी बरस के हैं। उनका शरीर दुबला है और सारे शरीर मैं झुरियां पड़ चुकी है। उनके बाल सफ़ेद हो चुके हैं और सारे दांत होने का मुझे शक है। उनके दायें हाथ में एक किताब है जिसे वो लेटे हुए पढ़ रहे हैं। किताब को जब मैंने गोर से देखा तो पता चला की वो अंग्रजी में है। उनका कमरा किताबों से भरा पड़ा हुआ है। एक दिवार पर लकड़ी की अलमारी है जिसमें चार लम्बे खाने बने हुए हैं। पहले दो खानों में कई ट्राफी रखी हुई है। कुछ मड़ी हुई तस्वीर है जिसमें वकील साहब के साथ कई और लोग भी है। एक तस्वीर में वो एक शख्स से ट्राफी लेते हुए खड़े हुए हैं। कुछ तस्वीर में प्रमाण-पत्र मड़े हुए हैं। अलमारी की बाकी दो खाने में किताबें एक सीध में जमी हुई है। ईशान दिशा में एक मेज़ है जहाँ कुछ किताबें रखी हुई है। किताबों के साथ कुछ कलम और कई सारी फाइल्स भी राखी हुई है। उसी मेज़ के ऊपर एक छोटा-सा मंदिर है जहाँ राधे-कृष्ण की मूरत रखी हुई है। पलंग के नीचे एक बाल्टी और एक पतले मूह का जग रखा हुआ है । जिस गादी पर वो लेटे हुए हैं वो काफी पुरानी हो चुकी है और उसकी खोली को जल्द धोने की ज़रुरत है। गर्मी के मौसम में उन्होंने मटमैली रजाई ओड़ी हुई है।

वकील साहब ने जैसे ही मुझे देखा तो अपने हाथ से किताब को अपने दायें तरफ राखी और सर हिलाते हुए मुझे कुछ कहा। पहले तो मुझे समझ में नहीं आया। शायद उन्हें बोलने में तकलीफ होती है। जब मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने फिर से कहा। थोड़ा ध्यान देने पे मुझे लगा कि वो मेरा नाम जानना चाहते हैं। मैंने कहा, "मैं लक्ष्य हूँ। सामने वाले घर में रहता हूँ।" उन्होंने मुस्कराते हुए सर हिलाया और वापस किताब पढ़ने लगे। थोड़ी देर बाद अचानक ही उनके हाथ से किताब छूट गयी और किताब धम से ज़मीन पर गिर पड़ी। मैंने जल्दी से किताब को उठाया और वापस पलंग पर रख दिया। वकील साहब ने किताब मेरी तरफ देते हुए कुछ कहा। जब मुझे समझ में नहीं आया तो उन्होंने इशारे से मुझे पढ़ने के लिए कहा। मैंने हिचकिचाते हुए किताब को हाथ में लिया और पढ़ने चालू करा। किताब पढते हुए मुझे एहसास हुआ कि ये महात्मा गाँधी की आत्मकथा है। मैंने किताब का कवर देखा जिस पे लिखा हुआ था 'द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ'। मैंने फिर पढ़ना चालु किया पर तभी दादी जी आ गयी। मुझे पढ़ते हुए देख वो कुछ बोलने से पहले चुप हो गयी। मेरे पास आकर मेरे सिर पे हाथ फेरते हुए कहा, "उनको पढ़ने का बड़ा शौक है पर शरीर साथ नहीं दे पाता। तू अगर कुछ देर के लिए आकर इन्हें पढ़कर सुना दिया करेगा तो इनको बड़ा अच्छा लगेगा।"
"मुझे पापा से पूछना पड़ेगा।"
"तेरे पापा मना नहीं करेंगे। फिर भी मैं बात करुँगी।"
"ठीक है।"
पता नहीं मैं क्यों मान गया। शायद मैंने सोचा इसी बहाने मुझे अंजली को देखने का मौका मिलता रहेगा। दादी जी को जैसे विश्वास था कि मेरे पिता जी मुझे मना नहीं करेंगे और हुआ भी वही और मैं कभी-कभी वकील साहब के घर जाने लगा। वो हमेशा मुझे एक नयी किताब देते। कुछ हिंदी तो कुछ अंग्रेजी में होती। जैसे ही मौका मिलता मैं ऊपर वाले कमरे में झाँकने जाता जहाँ कभी अंजली घुँघरू पहने हुए नाचती या पलंग में लेटे संगीत का लुफ्त उठाती। मैं हमेशा एक गुलाब का फूल लाता और चुपके से दरवाज़े के पास रखी कुर्सी पे रख देता।

दिन गुज़रते चले गये और मेरा वकील साहब के घर आना-जाना चलता रहा। जैसा मेरे दोस्तों सोचते हैं वैसे वकील साहब नहीं हैं। न तो उनके पास कोई बन्दूक है और न ही वो मरे है। उन्होंने अपनी एक अलग दुनिया बना ली है जहाँ कोई और आता जाता नहीं। पर शायद मैंने उनकी दुनिया में कदम रख लिया है। और मेरे दखल ने उनकी दुनिया को कुछ बदला भी है। अब उनके चेहरे पे मुस्कराहट आना आम बात है। किताबों को पढ़ने में मुझे भी मज़ा आता है और उन्हें भी। उनके इशारे के साथ साथ उनकी बोली भी मैं समझने लगा हूँ। कभी दादी से तो कभी पिता जी से मुझे पता लगा की वो शहर के नामी वकील हुआ करते थे। शहर के उच्च न्यालय में सभी उनको जानते हैं और उनकी इज्ज़त करते हैं। उन्होंने अपने पेशे में कभी कोई गलत काम नहीं किया जिसके कारण उन्हें कई बार सम्मानित किया गया जिसका प्रमाण उनके अलमारी में रखी हुई ढेर सारी ट्राफी हैं। पर एक दुर्घटना में उनके शरीर का बायाँ हिस्सा लकवा मार गया और दांया पैर इतना कमज़ोर हो गया कि वो चल नहीं पाते।
"पर वो अपने कमरे से बहार क्यों नहीं निकलते?" मैंने पिता जी से पुछा।
"पता नहीं। शायद वो अपनी लाचारी को जगजाहिर नहीं करना चाहते। मैं जानता हूँ की उनको कई बार अनेको कार्यक्रमों में आमंत्रित किया गया और कई बार तो विशेष अतिथि की रूप में बुलाया गया पर उन्होंने हर बार मना कर दिया। मुझे डर है की वो अपनी ज़िन्दगी को एक कमरे के अन्दर केद न कर ले। खेर वो उनकी ज़िन्दगी है और उनकी मर्ज़ी है कि वो अपनी ज़िन्दगी को कैसे जिए।" मैंने सर हिलाते हुए पिता जी की बात को मंज़ूर कर लिया।

मैं आज प्रेमचंद द्वारा रचित 'गोदान' पढ़ रहा हूँ। बहुत सारे शब्दों का अर्थ मुझे समझ नहीं आ रहा है पर मुझे यकीन वकील साहब को सब समझ में आ रहा होगा। मैं किताब पढ़ने में इतना मगन था कि मुझे पता ही नहीं चला कि अंजली दरवाज़े की देहलीज पर परदा पकड़े कड़ी हुई है। जब मेरा ध्यान उस पर गया तो मैं थोडा सकपका गया। अचानक दिल की धड़कने तेज़ हो गयी और मुहं में जुबान चली गयी। मुझे डर लगा कि शायद उसे पता चल गया है कि मैं उसे चोरी छुपे उनके कमरे में गुलाब का फूल रखता हूँ।
"तुम लक्ष्य हो न?" अंजली ने पुछा।
घबराहट से गला सूख गया पर हिम्मत कर मैं खड़ा हुआ और सिर हिला दिया।
"तो तुम दादा जी को पढ़कर सुनाते हो।"
मैंने कुछ नहीं कहा और सर झुक लिया। मैं क्यों शर्मा रहा हूँ ?
अंजली ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा, "अच्छा है। ये दादा जी एक ख़त आया है। इसे भी पढ़कर सुना दो।" और मेरे हाथ में एक ख़त पकड़ा कर कमरे से चली गयी। मैंने ख़त को खोला और पढ़ना चालु किया। ख़त कोई बार असोसिएशन से है। संस्था के पचास साल पूरे होने पे दादा जी को विशेष सम्मान दिया जा रहा है। दादा जी ने ख़त को लिया और एक हाथों की मुठी से मोड़ कर कमरे के एक कोने में फेंक दिया। उनकी आँखों में गुस्सा देख में डर गया। इशारों से उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा।

दुसरे दिन मैं फिर से उन्हें कुछ पढ़कर सुनाने लगा। अचानक मेरी नज़र कमरे के उस कोने पे गयी जहाँ कल का फेंका हुआ ख़त पड़ा हुआ है। मैंने किताब को बंद किया और वकील साहब से कहा, "सम्मान तो गर्व की बात है फिर आप क्यों नहीं जाना चाहते?"
"तुम अभी बच्चे हो। नहीं समझोगे।" लडखडाती हुई आवाज़ में वकील साहब ने उत्तर दिया।
अपने परिपक्वता के स्तर को खतरे में देख मैं ताओ में उठा, किताब को कुर्सी पे पटका और कहा, "क्या मिलता है आपको यहाँ पड़े-पड़े? क्यों एक कमरे में आप अपनी बाकी की ज़िन्दगी बसर करना चाहते हैं? पता नहीं आप दुनिया से गुस्सा हो या अपने आप से और या उस खुदा से जिसने आपके साथ ये किया?"
"मैं किसी से गुस्सा नहीं हूँ। अब बेठ जाओ।"
"आपको अच्छा नहीं लगता बागों में घूमना, छोटे-छोटे बच्चों को खेलते हुए देखना, दोस्तों के साथ गपशप करना, नए लोगों से मिलना-बात करना। मेरे पापा को तो ये सब बहुत पसंद आता है। आपको नहीं पसंद? आपका मन नहीं करता?"
"नहीं! अब पढोगे?" वकील साहब ने हड़बड़ाते हुए कहा।
"मैं अब तभी पदुंगा जब आप जाने के लिए राज़ी होंगे।"
थोड़ी देर सोचने के बाद वकील साहब ने कहा, "ठीक है। मैं चलने को तयार हूँ। पर मैं जाऊंगा कैसे?'
"रुको मैं आता हूँ।"
मैं दोड़ कर पहली मंजिल में अंजली के कमरे में गया। मैंने पहली बार परदे से झाँकने की जगह दरवाज़े पर दस्तक दी। अंजली पलंग पर बेठे कुछ पढ़ रही थी जब उन्होंने मुझे देखा और अन्दर आने को कहा।
"क्या आपके पापा एक दिन के लिए व्हीलचेयर का इंतज़ाम कर सकते हैं?" मैंने अंजली से पूछा। अंजली के माता-पिता, दोनों ही हस्पताल में काम करते हैं।
थोड़ी देर सोचने के बाद अंजली ने जवाब दिया, "हाँ .. शायद .. पूछना पड़ेगा। पर क्यों?"
"आपके दादा जी के लिए। अगले शनिवार को चाहिए। मुझे यकीन है कि आप अपने पापा को मना लेंगी।" कहते हुए मैं नीचे की और दोड़ा। रसोइघर में जाकर दादी जी से वकील साहब का सबसे अच्छा सूट धुलवाकर तयार करने को कहा।
वकील साहब के कमरे में आकर मुस्कराते हुए मैंने पढ़ना चालू कर दिया।

शनिवार के दिन वकील साहब बिस्तर से कई दिनों बाद उठे। उनको नहलाया गया। दादी जी की मदद से उहोने अपना सबसे अच्छा सूट पहना। अंजली के पिता जी ने व्हीलचेयर के साथ एक गाड़ी का भी इंतज़ाम किया। वकील साहब जब व्हीलचेयर में घर से बहार निकले तो उनकी आँखें बार बार बंद हो जाती। उनकी आँखों ने दिन की तेज़ रौशनी कई दिनों बाद देखी है। गली में आज मजमा लगा हुआ है। कोई छत की मुंडेर से झाँक कर देख रहा है या तो कोई घर के दरवाज़े खोल कर वकील साहब को देखने चला है पर सभी आँखे अचंभित है। कोई अपनी आँखें बार बार मल कर ये समझने की कोशिश कर रहा है कि वो सपना देख रहा है या हकीकत। कुछ लोग मौका पाकर वकील साहब के पास आकर नमस्ते कर रहे हैं और उनका हाल चल पूछ रहे हैं। कुछ लोगों वकील साहब की मदद करने के लिए तयार खड़े हैं। पर उन्होंने किसी की मदद लिए बगेर गाड़ी में बेठ गए। उनके साथ दादी जी भी बेठ गयी। वकील साहब ने दायें हाथ से गाड़ी की खिड़की का कांच नीचे किया और मुझे अपने पास आने का इशारा किया। मैं अपने घर के दरवाज़े के पास खड़ा था। मैंने मुस्कराते हुए उनसे कहा, "आप बहुत अच्छे लग रहे हो।" उनकी आँखें नम है पर होठों पे मुस्कराहट। उन्होंने मेरे सिर पे हाथ फेरा और कहा, "खुश रहो" मैं कुछ कह पाता उससे पहले मेरे कानों में एक आवाज़ आई, "थैंक यू!" मैंने देखा कि अंजली हाथ बढाये हुई खड़ी है। मैंने भी अपना हाथ बढ़ा कर उनसे हाथ मिलाया और शुक्रिया कबूल किया। वो भी वकील साहब के साथ चली गयी।

मेरे कुछ दोस्त बिजली के खम्बे के पास खड़े होकर सबकुछ देख रहे है। मैं उनके पास गया और अपनी मुट्ठी खोल कर दिखाया। मुट्ठी में एक गुलाब का फूल है जो अंजली ने हाथ मिलाते वक़्त मुझे दिया।

-लक्ष्य

Sunday, June 2, 2013

सौ बरस का सिनेमा

सौ बरस! सौ बरस का हो चूका हूँ मैं। फिर भी देखो मैं कितना जवान हूँ। आज भी मेरे खून में उतनी ही रवानी बहती है जितनी सौ बरस पहले। न जाने इन सौ बरस में मैंने कितने मुखोटे पहेने और कितने चेहरे बदले, कभी छोटा बना तो कभी बुढ़ा, कभी किसी ने मुझे चाँद तारों की तरह खूबसूरत बनाया, तो कभी किसी ने समाज का आइना बनाकर लोगों के सामने पेश किया। कभी किसी ने मुझे इतिहास के पन्नो से रूबरू करवाया तो कभी किसी ने दुनिया भर की सैर करवाया। मैंने लोगों को कई बार हंसाया भी और कई बार उनके आँखों में आंसूं भी ले आया। कभी प्यार-मोहब्बत की उलझने सुलझाई तो कभी ज़िन्दगी जीने का सलीका समझाया। कितना कुछ हुआ पिछले सौ बरस में!

एक पूरी सदी गुज़र गयी पर लगता है जैसे कल की ही बात हो जब 3 मई 1913 को मेरा जन्म हुआ। दादासाहेब फाल्के ने मेरा नाम राजा हरिश्चन्द्र रखा। वैसे तो मेरे जन्म के बीज कुछ साल पहले ही डल चुके थे पर पूरी तरह भारतीए होने में वक़्त लग गया। मैं इतना छोटा था कि मैं बोल भी नहीं पाता था पर मुझे देखने दूर-दूर से लोग आते थे और पूरे चालीस मिनट मुझे लगातार देखते थे। पर मुझे आवाज़ चाहिए थी जो मुझे 1931 में आलम आरा से मिली। फिर तो क्या था, मेरी चांदी ही चांदी हो गयी। अब लोगों ने मुझे और भी पसंद किया। पहले तो मुझे अछूत कन्या मानकर लोगों ने मुझसे तौबा किया पर धीरे-धीरे देवदास की तरह मेरे प्यार में डूब गए। अब मुझे और भी खूबसूरत और चमकदार बनाने का संघर्ष चालू हुआ।

जैसे ही पचास का दशक चालू हुआ मेरा रंग सोने की तरह दमकने लगा। मैं जवान हो रहा था और साथ में खूबसूरत और रंगीन भी। मुझे मनोरंजन तक सीमत न रख के, मुझे समाज के आईने की तरह प्रयोग कर जन जाग्रति में शामिल किया गया। इस आईने के रचेता बिमल रॉय हुए जिसने दो भीगा ज़मीन को गड़ा। मैंने कभी आवारा बन के इज्ज़तदार दीयों के निचे पल रहे अंधेरों को उजागर किया तो कभी जाग्रति से सही सिक्षा के माप-दंड तय किए। मैं क्षेत्रिय जंजीरों को तोड़ चूका था और अंतराष्ट्रीय मंच में मुकाबले के लिए तयार था। इस मुकाबले के लिए मेरे साथ खड़े हुए सत्यजित रे जिन्होंने मुझे पथेर पंचाली के लिए अपने कैमरे में कैद किया और निकल पड़े विश्व से मुकाबला करने। और वो एक से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने जैसे ठान लिया था की मुझे एक नया रूप देकर ही मानेंगे। एक ऐसा रूप जिस पर दुनिया नाज़ करे। सत्यजित रे ने अपराजितो और अपुर संसार से दो और भाग बनाये जिससे विश्वभर में मेरा नाम होना तय हुआ। सत्यजित रे ने अगर मुझे अपु के नाम से अमर कर दिया तो तपन सिन्हा ने काबुलीवाला से जग जीत लिया। और जब काबुलीवाला के रूप में बलराज साहिनी ने अपना जोहर दिखाया तो सारे हिंदी भाषियों की भी आँखें भर आई।

एक तरफ बंगाल में मुझे बदलने की मुहीम चल रही तो बम्बई भी कैसे पीछे रहती। जब गुरु दत्त ने एक शायर की मुफलिसी को मेरी आँखों से दिखाया तो ये तय हो गया कि मैं अभी भी प्यासा हूँ। और मेरी प्यास कागज़ के फूल तक नहीं सीमित नहीं थी। दो आँखें और बारह हाथ, मदर इंडिया, गाइड, मुग़लइ-ए-आज़म, साहिब बीवी और गुलाम, बंदिनी, पड़ोसन, भुवन शोमे, दस्तक जैसे कई कुएं मेरे लिए खोदे गए। बंगाल ने भी मुझे कई रत्नों से सजाया जिसमें प्रमुख रहे सत्यजित रे की चारुलता, नायक, महानगर, ऋत्विक घटक की भारत विभाजन पर आधारित मेघा ढका तारा। ये वो दौर था जब मेरे रुपहले परदे पे राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, उत्तम कुमार, बलराज साहिनी, मधुबाला, नूतन, मीना कुमारी, नर्गिस, वहीदा रहमान जैसे सितारों ने अपना जलवा भिखेरा और दुनिया उनकी कायल हो गयी।

सत्तर के दशक में मुझे एक और तारा मिला - हृषिकेश मुख़र्जी जिन्होंने मुझे लोगों के खूबसूरत मन का एहसास करवाया। वो चाहे रिश्तों के मायने हो या इंसानियत की परिभाषा, उनकी कोशिश रही की समाज में भाईचारा और बंधुत्व की भावना रहे। हलके-फुल्के पल जीवन में आनंद भर देते हैं। थोड़ा दफ्तर में गोलमाल करे या चुपके-चुपके अपने ससुर के साथ मौज मस्ती पर जरूरी है कि अपने सिर पर बड़ों का आशीर्वाद हमेशा बने रहे। ये सभी जीवन के सत्य बहुत खूब ह्रिशि दा ने मेरे ज़रिये लोगों तक पहुंचाए। इसी वक़्त मुझे एक सुपर स्टार भी मिला - राजेश खन्ना। एक ऐसा अभिनेता जिसे लोगों ने खूब चाह और सबसे बड़े सितारे का खिताब दिया। उस दिन मुझे महसूस हुआ कि मुझे लोग वो आसमान समझते हैं जिसमें कई सितारे चमक रहे हैं और हर कोई बस दिल में मुझे छूने की चाह रखता है।
ये वो भी दौर था जब पूरी कहानी कुछ एक किरदार के आस पास घूमती नज़र आती थी। पहले कहानियों में किरदार हुआ करते थे अब किरदार में कहानी थी। इस नई अभिव्यक्ति के सरताज थे गुलज़ार। उन्होंने उस मौसम में आंधी लेकर आये जब किसी ने अपेक्षा नहीं की थी। पर उनके साथ-साथ कई और गरम हवा भी चली। उसमें से अवल नाम था श्याम बेनेगल का। चाहे वो अंकुर की व्यथा हो, या मंथन का ख्वाब, या भूमिका के अलग-अलग रंग, श्याम बेनेगल ने एक बार फिर समाज के आईने को साफ़ किया। ये वो भी दौर था जब मैंने एक नए सितारे का जन्म देखा। एक ऐसा सितारा जिसे आगे चलकर सदी का महानायक कहा गया - अमिताभ बच्चन। ज़ंजीर, शोले और दीवार में दमदार भूमिका करके मेरे दिल में हमेशा के लिए जगह बना ली। ये वो भी दशक था जब लोगों ने मेरी अराधना की। ये वो समय था जब मेरे परदे पे जय संतोषी माँ जब भी अपना रूप दिखाती लोग भक्ति भावना से सिक्के दाल कर चरण-स्पर्श करते। और ये वो भी दौर था जब दक्षिण भारत ने भी मेरी चाहत को खुले आम दिखाना चालु कर दिया था। वो चाहे कमल हसन और रजनीकांत की मून्द्रू मुदिछु या कन्नड़ की घटाश्रद्धा, दक्षिण भारत ने अपना जलवा पूरे भारत में भिखेरना चालु कर दिया था।

इस दौर में कुछ ऐसे रूप भी मिले जो पहले कभी किसी नहीं देखा और जिसने लोगों को झंझोड़ कर रख दिया। आक्रोश में डूबा हुआ भीकू हो, या कोठे पे नाचती पाकीज़ा, या शतरंज की बिसात पे देखते भारत का इतिहास, या पहले आजादी की लड़ाई का जूनून। इस दशक ने मुझे सेकड़ो रूप दिए। हर शुक्रवार को एक नया रूप मिला। कुछ रूप मेरे लोगों ने खूब पसंद किया तो कुछ रूप को ठुकरा दिया। एक तरफ लोग मुझे चमकदार देखना चहाते थे, मुझमें सितारों की रौशनी ढूंढते थे, गाने बजाने का जश्न देखना था जिसके कारण मेरा बाजारीकरण हो रहा था और दूसरी तरफ कुछ ऐसे लोग थे जो मुझे खूबसूरत देखना चाहते थे। मुझमे मेरा अर्थ ढूंढना चाहते थे। इस टकराव ने मुझे दो भागो में विभाजित कर दिया। एक तरफ मैं लोकप्रिय था तो दूसरी तरफ मैं अर्थपूर्ण। अस्सी के दशक में विभाजन और भी गहरा होता गया। कहीं कुछ मिलाप हुआ तो वो था शक्ति, सदमा, मासूम और परिंदा में देखनो को मिला।

कमल हसन ने एक बार मुझे फिर नायगन से सम्मानित किया। उन्होंने ने मुझे पुष्पक विमानम से मेरे शुरूआती दिन की भी याद दिलाई। पर मेरा सबसे यादगार लम्हा रहा सलाम बॉम्बे के साथ जिसने दुनिया को बॉम्बे का अलग चेहरा दिखाया। लोगों ने मुझे खूब चाह और बहुत सराहना की। अस्सी का दशक सारांश में लिखना मुश्किल है पर जाने भी दो यारों ये वक़्त पार हो गया।

नब्बे के दशक ने मुझमें एक बड़ा बदलाव हुआ। ये वो दौर था जब मुझमें लोग मार-धाड़ देखना पसंद करने लगे। पर मेरा दिल तो उस दिलवाले पे चला गया जो मुझे दुल्हन बनाना चाहता था। शाहरुख़ खान ने मोहब्बत को अलग नाम दिया। कभी दोस्त बनकर उसने दिल जीत लिया तो कभी किरण का आशिक बनकर। कुछ और यादगार था तो सत्या और सरफ़रोश की कामयाबी।

नई सदी ने नए रंग लेकर आई। लगान में मैंने क्रिकेट खेलकर अंग्रेजों को मात दी तो चक दे इंडिया में हॉकी में विश्व कप का खिताब जीता। श्वास ने लोगों को रुलाया तो मुन्ना भाई एम बी बी एस ने लोगों को हंसाया भी। स्वदेस ने देशप्रेमी बनाया और तारे ज़मीन पर ने बच्चो को समझने का सबक सिखाया। मकबूल ने किरदारों से ऊपर उठ फिर कहानी पे जोर दिया तो ओमकारा ने बेहतरीन अभिनय का प्रदर्शन किया। रंग दे बसंती ने लोगों के मन में कुछ कर गुजरने का जूनून पैदा किया। मैं खुश था क्योंकि मेरी उड़ान इतनी ऊंची हो गयी थी जहाँ मुझे मेरे दो भागों के बीच का अंतर नहीं दीखता था। पिछले साल मुझे बहुत गौरव प्राप्त हुआ जब एक वर्ष में मेरे कई रूपों को लोगों ने भी पसंद किया और सराहा भी। पान सिंह तोमर और गैंग्स ऑफ़ वासेपुर से मेरा सिर फक्र से ऊंचा कर दिया। ये दौर ने मेरे दो भागों के बीच की हर दिवार को तोड़ दिया है। मुझमें फिर से वोही उमंग भर दी है जो पचास के दशक में थी।

एक साथी जो पिछले सौ बरस में नहीं बदला और हमेशा मेरे संग रहा वो है संगीत। भारतीए संस्कृति के साथ साथ संगीत मेरा भी प्रतीक बन गया। चाहे वो देश प्रेम हो, चाहे वो प्यार मोहब्बत की बातें और चाहे वो ज़िन्दगी की राह की गाथा संगीत ने मुझे हमेशा परिपूर्ण किया। ऐसे कई गीत है जो अमर हो चुके हैं और उनके साथ वो लम्हे, वो शक्श जो उनके साथ जुड़े हुए थे। ये गीत लोगों के दिल में इस कदर बसर करते हैं जैसे उनकी धड़कन हो। सौ बरस के बाद भी अगर में जीवेत हूँ और हर दिन, हर वर्ष मैं और भी जवान होता जा रहा हूँ, तो मुझे यकीन ये लोगों की मुझसे मोहब्बत का असर है। पर सितारों के आगे जहाँ और भी है, अभी इश्क के इम्तिहान और भी हैं।

-लक्ष्य

Saturday, May 5, 2012

Best Movies Ever #4 - The Apu Trilogy (1955-59)




Screenplay, Directed and Produced by: Satyajit Ray
Music by: Ravi Shankar
Cinematography: Subrata Mitra


Aparna: Who will pay for the servant?
Apu: I'll get more private tuition. 
Aparna: Then send me to my parents?
.....
Apu: Then what should I do?
Aparna: Give up the tuition so that my poor husband will come home early. Then I shall lament no more.

The above lines describe the quality of intensely sensitive conversation between husband and wife. The inherent quality of Satyajit Ray's The Apu Trilogy was that the whole endeavor was realistic and natural. It would take hardly second for you to become the part of Apu's life. Every character is beautifully cultivated and knitted around Apu’s life. The Apu Trilogy is one of the finest Indian cinemas and it firms my belief that Indian cinema is not behind any other cinema of the world.

The Apu Trilogy consists of three Bengali movies -   Pather Panchali (Song of the Little Road - 1955), Aparajito (The Unvanquished - 1956) and Apur Sansar (The World of Apu - 1959). The films were based on two Bengali novels Pather Panchali and Aparajito written by Bibhutibhushan Bandopadhyay. Ray, immensely inspired from Italian neorealism especially Vittorio De Sica's Bicycle Thieves, chose amateur cast for his movies. Even his crew was new and inexperienced. He shot in real life locations and it took almost three years to come up with first movie due to budget constraints. After release of Pather Panchali, Ray and most of his crew member especially cameraman Subrata Mitra raised to national fame and with second movie they became international acclaimed film-makers bagging many national and international awards.

The Apu Trilogy is a story of a common poor man but with ambitions in his eyes. The first movie portrays Apu's childhood in rural Bengal where he lives with his parents, elder sister and an aunt. This movie concentrates more on his family depicting real problems faced by poor families of rural India. For me, this movie and most of the part of second movie belongs to Apu's mother. She brilliantly portrays the cruel responsibility of running the family, agony of loosing daughter and then husband and dilemma of sending her son far from her for higher studies. One of the most brilliant character was 80 years old Aunt. No words could describe her but you could find such characters very near to your household. The first movie ends with movement of Apu's family to Banaras after death of Apu's elder sister.

The second movie, Aparajita, takes you to the journey of Apu's education life. Death of Apu’s father and Apu’s uncertain future was beautifully caricatured by Ray. The best part of the movie is the perplex relationship between Apu and his mother. The scene where Apu comes back to stay with his mother for a day and gives excuse that he missed the train would touch your heart deeply. The movie ends with the death of Apu’s mother after which he moves to Calcutta.

The third movie, Apur Sansar, greets you with an ambitious writer, a loving and responsible husband and a turmoil driven father. Ray opens another pandaro’s box in the life of Apu with Aparna, his life partner but she dies at the time of childbirth. The agony of loosing Aparna clamped Apu and he became wanderer. He abandons his child but at the end he meets him to find love back in his life.  

The whole cast is appreciable but it is sheer brilliance of Satyajit Ray who put the Indian cinema on the International platform at par with greatest cinemas of all eras. Most of the scenes will touch you deeply and will be with you for your entire life. The outstanding camerawork and melodies should not be ignored. Language is no bar because feeling has no dictionary and relationship is universal.
The outstanding part of the trilogy was that second movie was better than first and the third movie was better than second. A very rare case.

I do not want to list its brilliance because it will take hundreds of pages so just see the movies and you will realize that old is really gold.  

Tuesday, November 22, 2011

Best Movies Ever #3: Children of Heaven (1997)



Written & Directed by Majid Majidi

Produced by Amir Esfandiari and Mohammad Esfandiari

Running time : 89 minutes

Country: Iran

Language: Persian


Sometimes it is astonishing to see something so simple yet so beautiful that we could not resist to love it. Similar feelings wobbled my heart when I saw 'Children of Heaven', a 1997 Iranian drama flick. Written and directed by Majid Majidi, Children of Heaven showcased the most classic paradox of losing even after winning the race in the most subtle way ever demonstrated in the history of world cinema. With no actions, special effects, guns and gooses, or any complicated relationships it evinced the beauty of simplicity through ‘direct dil-se' story. Though the movie is set up in Iran, the story can be easily comprehended and loved by universal audience, irrespective of generation gap. It was nominated for Acadamy Awards for Best Foreign Language Film in 1998 and won several awards at International level.

Story of the movie revolves around a family of four members living in old town of Iran and coping with financial disturbances. Though, the main plot revolves around Ali, a nine years old school going kid, who by mistake loses his little sister’s (Zahra) pink shoes while he took them for repairing. Fearing of a scold from his father, Ali does not tell his father about lost shoes but the problem is that how will Zahra go to school without shoes? So, both device a plan in which Zahra will wear Ali's sneakers in morning and Ali will wear it in afternoon classes. Meanwhile, Ali comes to know about a inter school race competition in which third prize is a pair of shoes. Ali immediately thinks as an opportunity and threrfore participated in the race but eventually he comes first. Though he wins the race but he is not happy as he missed the opportunity of getting a pair of shoes.

Amir Farrokh Hashemian as Ali steals the show with his brilliant performance. As an innocent but helpless kid who could not tell his father about lost shoes, he brilliantly played the big brother of his sister and also showed enough maturity to understand the financial condition of his father. His innocent face justifies his dilemma between responsibilities of being eldest son of house and fun of being school going kid. Bahare Seddiqi as Zahra and Ali's little sister justifies her role with utmost innocence and cute dialogue delivery. It is difficult to ignore the performance of Amir Naji as Ali's father who is sometimes rude but cares more than anything about his children.

‘Children of Heaven’ is a simple but well written story which not only touches your heart but stays in your heart for eternity. Majid Majidi deals closely with almost every relationship depicted in the movie especially brother - sister relationship. The scene where Ali and Zahra exchange notes for a solution is beautifully written and executed. The soul of the movie lies in its inherent sweetness of caring love between Ali and his sister, responsible love of Ali for his father and unconditional love of parents for their children. The scene where Ali went with his father to rich houses of big city for gardening work and how he helped his father in communicating through intercom is incredible.

‘Children of Heaven’ is not about rich or poor life but it tells the way to live life, it is not about struggle in life but it is about emotional bonding among family members which make them able to cope any struggle of life. ‘Children of Heaven’ is ninety beautiful minutes of engrossed emotional content.




Saturday, November 12, 2011

Best Movies Ever #2: The Bicycle Thief (1948)


Directed by Vittorio De Sica
Produced by Giuseppe Amato
Language: Italian

Hard times can break you in pieces. Wisdom and morality will be lost in the woods of reality of life. The uncontrolled circumstances can force you to make mistakes. Mistakes, after you commit, cannot be regressed and at that time you even cannot face your dear ones especially those for whom you are an idol. Antonio face the same situation in 1948 Italian classic drama flick 'The Bicycle Thief'. Though the original name was 'Ladri di biciclette' in Italian which can be translated to 'Bicycle Thieves' in English but movie was released in US with the name 'The Bicycle Thief'. In 1952, the magazine Sight & Sound listed it as the greatest movie ever made. This movie also got the Academy Honorary Award in 1950. It always ranked among the top in almost all the polls conducted worldwide for e.g. it was placed sixth as the greatest movie ever made in Sight & Sound's directors' poll, conducted in 2002 and was ranked in the top 10 of the BFI list of the 50 films you should see by the age of 14.

The movie is the classic example of the neo-realism movement started in Italian film industry which portrays the reality of Italian middle and lower middle class society. Movie is set up in the economy of Italy just after the world war II. Antonio Ricci is one of the many who are unemployed and are living in penury. Fortunately, Antonio gets the job of pasting posters but on a condition that he must posses a bicycle. 'No bicycle, no job'. His wife sells some old and some new bed sheets to buy a bicycle but hard luck prevails and Antonio's bicycle get stolen on the first day of his work. He cannot continue his job until he finds a bicycle therefore along with his son, Bruno, he starts searching for his bicycle. The whole day he searches for his bicycle but with no luck. At last, he try to steal one but unfortunately public catch hold off him. While he was stealing bicycle his son saw him. He was embarrassed to set a bad example in front of his own son, but at the end his son slips his hand into his father hand letting him know that he still believes in his father and still he is his idol.

Vittorio De Sica as the director of movie casted a steel worker Lamberto Maggiorani as Antonio Ricci who was unproffesional and novice to film industry but he beautifully portrayed a common man of Italy who was unemployed, helpless and dejected from his life. On the other hand, Bruno played by Enzo Staiolo was remarkable in displaying innocence of childhood and ability to understand agony of his father. In one of the scene where he was dining with his father in a restaurant, he looked towards kids of affluent class who were eating full pasta whereas he was just having bread and mozzarella but he starts pretending to be enjoying it too. There are many such scenes in the movie where your eyes turns wet while watching father-son relationship in the utmost mesmerizing way.

'The Bicycle Thief' shows the reality of Italy - real streets - real house and real people facing real situations. It wonderfully depicts the prevalent culture and society of Italy as the background keeping the realism of life of a common man at front. Movie is a landmark in the history of world cinema because of its significance of being inspiration for many directors of world wide. Indian legendary directors Stayajit Ray and Bimal Roy were inspired from this movie. Stayajit Ray's Pather Panchali and Bimal Roy's 'Do bhigha zameen' were the tribute to 'The Bicycle Thief'. I can see similar father-son relationship in 'Life is beautiful' and 'The pursuit of happyness' but not so subtle and charming as in 'The Bicycle Thief'. A scene where Bruno started crying after getting hit by his father and then showed his anger by saying 'I will tell mom that you hit me' and Antonio replied by saying "In a second you’ll have more to tell her". I could not resist a sweet smile comprehending the ongoing beautiful emotional link between father and son.

My heart is not as complicated as I perceive, it loves simplicity and therefore 'The Bicycle Thief' will always remain very close to my heart.