ज़िन्दगी वो सफ़र का नाम है जहाँ कई मुसाफिर मिलते हैं। कुछ उम्र भर साथ निभाते है तो कुछ पल भर के साथ के बाद कोई और रास्ते पे निकल जाते हैं। कुछ मुसाफिर ऐसे होते हैं जिन्हें हम याद नहीं करना चाहते पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें पल भर के लिए भी भुलाया नहीं जा सकता। वो चाहे हमारे ज़िन्दगी से कितने हि दूर क्यों न चले गये हों फिर भी वो हमारे ज़हन में हमेशा रहता हैं। ऐसे ही कुछ मेरे साथ हुआ।
बात उस समय की है जब मैं जबलपुर जिले में पढ़ने आया। उसके पहले मैं मंडला में पढ़ाई करता था जहाँ मैं अपने माता-पिता के साथ रहता था। बेहतर शिक्षा के अभाव के कारण मेरे पिता जी ने ये निर्णय लिया कि मैं अपनी आगे की शिक्षा बड़े शहर में करूँगा। उनके लिए वो निर्णय था और मेरे लिए हुकुम। मैं बेमन से जबलपुर आ गया। पिता जी ने एक बड़े स्कूल में नौवी कक्षा में मेरा एडमिशन करवा दिया। जबलपुर में ही मेरे मामा जी रहते थे जहाँ मेरे रहने की व्यवस्था हो गयी। स्कूल आने जाने के लिए एक रिक्शा भी लगवा दिया गया जो मुझे सुबह-सुबह घर से स्कूल ले जाता और दोपहर में वापस छोड़ जाता।
मेरा नया स्कूल अपने आप में ही एक शहर था। बड़ी-बड़ी बिल्डिंग थी जहाँ कई क्लासेज में सेकड़ो बच्चे पढ़ा करते थे । बड़ा सा एक मैदान था जहाँ फुटबॉल से लेकर क्रिकेट, सभी कुछ खेला जा सकता था। दुसरे खेलों के लिए पुख्ता इंतज़ाम थे। पढ़ाई करने के लिए एक बड़ी लाइब्रेरी भी थी। सुबह प्राथना के वक़्त सभी बच्चे अपनी कक्षा के मुताबिक एक सीध में खड़े हो जाते थे। सभी ने वोही खाखी शर्ट और पेंट पहना होता था। मुझे स्कूल यूनिफार्म कभी पसंद नहीं आई। ऐसा लगता था की जैसे हवलदारों का जमघट लगा हुआ है। ऊपर से हरे रंग की टाई जिसमें पीले रंग की धारियां होती थी। मेरे पुराने स्कूल में प्राथना हिंदी में होती थी पर नए स्कूल में इंग्लिश में प्राथना करते थे। और पूरे 15 मिनट के उस कार्येक्रम को असेंबली कहा जाता था।
मैं इंग्लिश में कमज़ोर था और जब इंग्लिश में असेंबली होती तो मैं बस औपचारिक तौर पर वहां खड़ा रहता था। अपने मन को बहलाने के लिए कभी इधर उधर देखता और कभी टीचर के शक को दूर रखने के लिए बिना कुछ बोले बस अपने होठों को हिलाता । रोज़ बालों की लम्बाई नापी जाती और बूट में चमक न होने पर मुर्गा बनाया जाता। कभी कभी तो नाखून को भी गोर से देखा जाता। जितने भी छोटे हो अगर साफ़ नहीं हुए तो खेर नहीं। मेरे पिता जी का निर्णय मेरी समझ के परे था। मुझे समझ नहीं आता था की क्यों वो मुझे इंग्लिश स्कूल में एडमिशन करवाना चाहते थे ? कभी-कभी गुस्सा भी आता और कभी-कभी उनकी याद से आँखें भर आती।
मुझे मेरे पुराने दोस्तों की बहुत याद आती। उनके साथ बिताये हुए लम्हे, वो मस्तियाँ भुलाना मुश्किल था और नए दोस्तों का न बन पाना मेरी मुश्किलों को और बढ़ा रहा था। मुझे लगता था कि सब मुझ पर हंस रहे हैं। मेरी कमज़ोर इंग्लिश को अपने मज़ाक का हिस्सा बना रहे हैं। मुझे ऐसे देखते थे जैसे कि मैं कोई अछूत हूँ। मानो मेरे कपड़ो से बू आती हो। इसलिए मैं सब दूर आखिर बेंच में अकेला बेठने लगा। पढ़ाई से तो वैसे भी मेरा मन ऊबता जा रहा था।
एक हफ्ते बाद मेरी क्लास में एक नया लड़का आया। क्लास में घुसते ही साथ उसने चारों तरफ नज़र घुमाई और फिर वो मेरी तरफ बड़ा और मेरी बाजू वाली सीट में बेठ गया। उसने मुस्कराते हुए मुझे अपना नाम बताया - सागर। मैंने छिड़ते हुए उसकी तरफ देखा और सिर हिला दिया। मुझे एहसास था कि उसे इस बात का बुरा लगा होगा पर मुझे दूसरों के जज्बातों से ज्यादा अपने अन्दर के रोष का झेलना था। पर मेरी उम्मीद के विपरीत उसने मुस्काते हुए चेहरा पे ज़रा सी भी सिलवटे नहीं आने दी। पल भर ही बाद उसने मेरे से इंग्लिश में पूछ लिया, "तुम यहाँ नए हो?" मैंने झिला के जवाब दिया, "क्या तुम पुराने हो?"
"हाँ! मैं तो यहाँ शुरुआत से पढ़ रहा हूँ।"
"एक हफ्ता हुआ पर मैंने तुम्हे तो नहीं देखा?"
"मेरी तबियत ठीक नहीं थी इसलिए घर पे था।"
सागर की इंग्लिश अच्छी थी और शायद इसी कारण वो मुझे पसंद नहीं आया। और इसलिए मैंने उसे नज़रंदाज़ करने लगा। वो रोज़ मेरी बाजू वाली सीट पर बेठता और मेरे से बात करने की कोशिश करता पर मैं हर सवाल का जवाब एक सवाल से ही करता। कुछ दिन में वो समझ गया कि मुझे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। पर अचम्भा तो इस बात का था की क्लास में उसके दोस्त तो थे पर किसी को उसमें दिलचस्पी नहीं थी।
एक दिन लंच ब्रेक में मैं अपना टिफ़िन बॉक्स से खाना खा रहा था जब अचानक ही सागर पीछे से दोड़ते हुए आया और मुझे धक्का देते हुए चला गया। मेरे हाथ से टिफिन बॉक्स छूट गया और पूरा खाना ज़मीन पर गिर गया। ये देख मुझे गुस्सा आया और मैंने सागर के पीछे दोड़ लगा दी। जब उसने मेरा टिफिन को गिरते हुए देखा तो वह रुक गया। मैंने उसे जोर से धका दिया जिसके कारण वो ज़मीन पर गिर गया। और फिर मैंने उसे उठाया और जोर से उसके गाल पर एक थपड़ जड़ दिया। गुस्से में मैंने उसकी कॉलर पकड़ी और वो छुड़ाने की कोशिश करने लगा। हमारे बीच हाथा-पाई चालू हो गयी। तभी कुछ दुसरे सहपाठियों ने हमें एक दूसरों से अलग करवाया। मेरा गुस्सा का पारा चढ़ा हुआ था और वो गुस्सा मैंने सागर के ऊपर उतारने की पूरी कोशिश की। मेरी कोशिश का अंत तब हुआ जब एक टीचर ने मुझे पकड़ कर अलग किया। हम दोनों को प्रिंसिपल के सामने ले जाया गया। मुझे अपने किये पे कोई शर्मिन्दिगी नहीं थी और न ही किसी अंजाम का भय। प्रिंसिपल को पूरी घटना का ब्यौरा मिल चूका था और इसलिए वो मेरी तरफ बड़े। पर वो कुछ मुझे कहते उसके पहले ही सागर ने कहा, "सर, इसमें मेरी गलती है, मैं ही ध्यान से नहीं खेल रहा था जिसके कारण लक्ष्य का खाना गिर गया और उसे गुस्सा आ गया। मुझे माफ़ करे"
प्रिंसिपल ने एक बार सागर की तरफ देखा, फिर अपनी ऐनक उतारी और मुझसे कहा, "ये स्कूल है कोई लड़ाई का मैदान नहीं। अगली बार ऐसा हुआ तो सीधे बाहर कर दूंगा। ध्यान रहे।" प्रिंसिपल ने सागर के सिर पर हाथ फेरा और हमें जाने के लिए कहा।
पुराने स्कूल में मैंने कभी डांट नहीं खाई थी। सभी टीचर मुझे पसंद करते थे और प्रिंसिपल का तो मैं चहिता था। हमेशा अव्वल आना मेरी फितरत थी। पढ़ाई से लेकर खेल कूद सभी चीज़ों में मन लगता था। पर नए स्कूल में शुरुआत अच्छी नहीं रही। पहले ही कुछ दिनों में प्रिंसिपल के पास जाने की नौबत आ गयी और अपने मन को समझाने के लिए मैंने सारा दोष सागर पर मढ़ दिया। इस घटना के बाद हमारे बीच जो छोटी-मोटी बातचीत होती थी वो भी बिलकुल बंद हो गयी। वो मेरे पास बेठता तो था पर जैसे हमारे बीच शांत युद्ध छिड़ा हो।
इस पूरी घटना ने मुझे क्लास में हीरो बना दिया। जो मुझे गिरी हुई निगाहों से देखा करते थे अब वोही दोस्ती का हाथ बड़ा रहे थे। मैं भी खुश रहने लगा था। अब लंच ब्रेक में और मस्ती होती थी। धमा-चोकड़ी मचाई जाती थी। कभी किसी के टिफिन बॉक्स से खाना छीनकर खाते तो कभी सामने बेठे हुए बन्दे की शर्ट इंक पेन से खराब कर देते। दो पीरियड के बीच के समय में कागज़ की गोलियां बनाकर एक दूसरों पर फेंकते। समय बीतता जा रहा था और मैं एक नए शहर के एक नए स्कूल का एक पुराना विद्यार्थी बन गया। पर एक चीज़ जो मुझे खटक रही थी वो था सागर। वह क्लास में बहुत कम लोगों से बात करता था। न कोई मस्ती न कोई उधम, बस पढ़ाई और पढ़ाई। दूसरी तरफ मैंने पढ़ाई करना जैसे छोड़ ही दिया था। क्लास में पीछे होते जा रहा था। पर मस्ती का इतना सुरूर था कि पढ़ाई करना की ज़रुरत महसूस नहीं हुई और ऊपर से घर में कोई बोलने वाला भी नहीं था। मामा और मामी जी को अपने काम और अपने बच्चों से फुरसत ही नहीं मिलती।
खेर कहानी आगे बढ़ाते हैं और उस दिन की बात करते हैं जब हमारी क्लास पिकनिक के लिए कुछ 100 कि मी दूर एक बोटैनिकल बगीचे गई। वहां जाकर हमारी क्लास टीचर ने अपने ज्ञान के सरोवर को बहाना चालू किया। वो बगीचे में उगाये गये भिन भिन प्रकार के पेड़ और पोधे के बारे में बता रही थी। पर मेरा ध्यान कहीं और था। बगीचे के पीछे मुझे जंगल नज़र आ रहा था। और मेरी इच्छा हो रही थी कि जंगल की एक बार सेर करी जाए। पर मेरे साथ चलने को कोई राज़ी नहीं था। टीचर के सख्त निर्देश थे कि बगीचे से बहार कोई भी बिना इजाज़त के न जाये वरना अंजाम बहुत बुरा होगा। मैंने ठान ली कि कुछ भी हो जंगल तो घूम कर आना है। टीचर की नज़रों से बचकर मैं जंगल की तरफ निकल गया। धीरे धीरे मैं आगे बढ़ता गया। पहले छोटे-छोटे पोधे, सुखी घांसों के बीच भिकरे मिले, फिर बड़े पेड़ो के नीचे उन्ही की टूटी सूखी टहनियां पड़ी मिली। मैंने एक लम्बी सी टहनी हाथ में ली और आगे बढ़ता गया। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता जा रहा था वैसे-वैसे जंगल और घना होता जा रहा था। समय गुज़रता गया और मेरे कदम नहीं थमे। मैं बस मदहोश अपनी ही मस्ती मैं चलता गया। कुछ देर बाद मुझे अचानक एहसास हुआ कि मैं काफी दूर निकल आया हूँ। जब मैंने अपने चारों ओर देखा तो बस मुझे घना जंगल नज़र आ रहा था। दूर दूर तक कोई दिशा कोई रास्ता नहीं समझ आ रहा था। मैं घबरा गया और आँखें नाम हो गई। माथे से पसीना टपकने लगा। जंगली पोधों की लटकती बेलों ने मेरे हाथों को खरोच भी दिया था जो अब जलन कर रहा था।
मैं असमंजस में था। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस तरफ जाऊं। मैं एक कदम दाईं तरफ बढाता और फिर रुक जाता। फिर किसी दूसरी तरफ बढ़ता और फिर रुक जाता। घबरा कर मैं एक पेड़ के नीचे बेठ गया। तभी कहीं से मेरे नाम की आवाज़ सुनाई दी। कुछ पल बाद फिर से वोही आवाज़ वापस आई। मैं तुरंत खड़ा हुआ और उस आवाज़ की तरफ तेज़ी से भागा।
जो मुझे आवाज़ दे रहा था वो मेरे सामने खड़ा था। वो और कोई नहीं पर सागर था। मैंने सागर से पुछा, "तुम यहाँ क्या कर रहे हो? कहीं तुम मेरा पीछा तो नहीं कर रहे।"
"मैंने तुम्हे इस जंगल की तरफ आते देखा। इसलिए तुम्हे बुलाने आ गया।"
जितना जल्दी मैं खुश आवाज़ सुनकर हुआ था उतनी ही जल्दी मेरी उदासी का सबब सागर का ये जवाब था। मैंने सूखी टहनी हाथों से झटका और कहा, "पर लगता है हम इस जंगल मैं फँस गये हैं।"
"चिंता मत करो।" कहते हुए सागर ने अपने उँगलियों में एक चाक दिखाई। पर मैं कुछ समझ नहीं पाया। और हँसते हुए कहा, "मज़ाक मत कर .." और फिर मैं कुछ और बोलता उसने मुझे इशारे से एक पेड़ की और देखने के लिए कहा। जब मैंने उस पेड़ की और देखा तो पेड़ पर एक क्रॉस का निशान मिला। एक ही पल में मेरी आँखें ख़ुशी से चमक गयी। मैं समझ गया की सागर ने आते वक़्त अपने रास्ते में आने वाले पेड़ो पर क्रॉस का निशान बना दिया जिसके कारण हम वापसी का रास्ता आसानी से ढूंढ लेंगे। मुझे एहसास हुआ कि सागर एक अच्छा दोस्त है और मैंने उसके साथ बुरा बर्ताब किया था।
"अब चलें" सागर ने मुस्कराते हुए कहा और हम क्रॉस के निशान के साहारे वापस चलने लगे। मैं आगे चल रहा था और सागर पीछे। हम अभी भी बात नहीं कर रहे थे। मैंने सोचा की येही वक़्त है उससे माफ़ी मांगने का। मैंने अपने कदम थामे और पीछे मुड़ा पर मैं कुछ कह पाता उससे पहले ही सागर के मुहं से चीख निकली। मैंने देखा कि एक सूखी टहनी ने उसके हाथ को बुरी तरह से छील दिया और उसके हाथ से खून निकल रहा था। मैं उसकी मदद करने आगे बड़ा पर तभी सागर ने जोर से चिलाया और कहा, "नहीं! मेरे पास मत आना" मैं समझ नहीं पा रहा था पर मुझे डर था की घाव गहरा न हो इसलिए मैंने कहा, "तुम्हे चोट लगी है मुझे दिखाओ मैं उस पे पट्टी बाँध देता हूँ" मैंने जेब से रुमाल निकाला और उसकी तरफ बड़ा पर फिर उसने मुझे अपने करीब आने से मना कर दिया और बस रुमाल को अपनी तरफ फेंकने का इशारा किया। सागर ने रुमाल से अपने हाथो को कस कर बाँध लिया।
"हमें चलना चाहिए वरना बहुत देर हो जाएगी।" सागर ने कहा और हम चलने लगे। पर मेरे मन में जिज्ञासा का कीड़ा घर कर गया था। मैंने पुछा, "तुम अछूत हो क्या?" सागर ने हँसते हुए न कर दिया। फिर मैंने पुछा, "कहीं तुम ये तो नहीं समझते कि मैं अछूत हूँ" सागर ने कहा, "अगर तुम अछूत होते तो मैं तुम्हारा रुमाल नहीं लेता।" मैंने सिर हिला दिया और फिर मैंने हँसते हुए पूछ ही लिया, "कहीं तुम्हे छुआ छूत की बिमारी तो नहीं?" सागर ने कुछ नहीं कहा। मैंने फिर कहा, "क्यों क्या हुआ, कुछ बोलते क्यों नहीं।" सागर ने आखिर जवाब दे दिया, "मेरा खून दूषित है। और मुझे डर था कि अगर मेरा खून तुम्हारे खून से मिल जाता तो शायद तुम्हारा खून भी दूषित हो जाता।" मैंने अपने हाथों के खरोचों को देखा और कुछ बोल नहीं पाया। हम वापस बगीचे सही समय पर पहुँच गए थे। घर जाते हुए मैं बस गुमसुम सोचता रहा।
दो दिन की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुला तो मेरी निगाहें सागर तो देख रही थी। पर वो नहीं दिखा। मुझे उससे माफ़ी मांगनी थी। मुझे उससे दोस्ती करनी थी। पर वो उस दिन स्कूल नहीं आया। दुसरे दिन असेंबली में भी हम सभी खड़े थे और आज भी मेरी निगाहें सागर को ढूंढ रही थी। पर मेरा दिल उस समय टूट गया जब प्रिंसिपल ने सब के सामने ये घोषणा कि अब हमारे बीच सागर नहीं रहा। तबियत बिगड़ने के कारण उसकी प्रातः काल मौत हो गयी। उसकी आत्मा की शान्ति के लिए दो मिनट का मौन रखने के लिए कहा गया। पर मैं सदमे था। मेरी आँखों मैं पानी था जिसे मैं रोक नहीं पाया। मैंने हिम्मत की और अपना बैग उठाया और बहार गेट की तरफ दोड़ लगा दी। स्कूल से बहार निकलते ही मैंने रिक्शा पकड़ा और सीधे सागर के घर गया।
सागर सफ़ेद चादर में लिपटा हुआ था। मैंने दूर से ही हाथ जोड़े और अपने कर्मों के लिए माफ़ी मांगी। अचानक मेरी नज़र सफ़ेद चादर से बहार उसके हाथ पर पड़ी। उसके हाथ में मेरा रुमाल बंधा हुआ था। मैंने आँखें बंध की, आंसू पोछे और वापस घर लौट आया।
- लक्ष्य