Monday, July 8, 2013

परदे के पीछे

जाऊं कि नहीं। अपने घर के सामने वाले घर की छत को देखते हुए सोचा मैंने। सामने वाले घर की छत पर टीवी का एंटीना में एक पतंग फंसी हुई है। आज मेरी पतंग ने मुझे बहुत जल्दी धोका दे दिया और आसमान को छूने से पहले ही सागर के लहर की तरह लहराते हुए कहीं दूर चली गयी। आसमान जो विशाल नीली चादर ओढ़े था अब उसकी चादर में रंग बिरंगे पतंगों के धबे लग हुए है। गर्मियों की छुट्टियाँ, शाम का वक़्त और आसमान में पतंगों का जमघट एक अलग ख़ुशी का अनुभव देता है। अलग अलग रंगों से भरी पतंगे आसमान पर चादर की तरह बिछ जाती है। कहीं दो छोटी पतंगे गले डाले आपस में बात करते हुए मिलेंगी तो कहीं दो पतंगे आपस में रकीबों की तरह झगडा करते हुए। और कहीं एक पतंग होगी जो सबसे अलग सबसे जुदा शान से बहुत ऊँचा उड़ रही होगी। जिसे अपने परवाज़ की कोई सीमा तय करने की ज़रुरत नहीं पड़ती और न ही किसी और पतंग से कटने का डर सताता। बस उसी पतंग की तरह मेरी पतंग भी आसमान को छूना चाहती थी पर उसके पहले ही उसने मेरे से नाता तोड़ लिया। नए पतंग खरीदने के पैसे नहीं है । मैंने अपने पेंट की जेब को टटोला भी पर आज बदकिस्मती से मेरी जेब खाली मिली।

मैंने अपने छत की मुंडेर से झाँक कर देखा कि सामने वाले घर का दरवाज़ा खुला हुआ है। अक्सर बच्चे उस घर में अकस्मात ही घुसने की कोशिश नहीं करते। उस घर में घुसना मतलब जान जोखिम में डालना। वहां वकील साहब रहते हैं। मैंने उन्हें कभी देखा नहीं, बल्कि मेरे दोस्तों में से किसी ने उन्हें नहीं देखा। पर उनका डर सभी बच्चो पर भरपूर है शायद इसलिए क्योंकि सभी कहते हैं कि वो बहुत खूसट हैं। उनके बारे में सभी के अलग अलग ख्याल हैं। कोई कहता है कि वो मर गये हैं और उनका भूत वहां रहता है और कोई कहता है कि वो बच्चों को अपने पास केद कर लेते हैं। कोई ये भी कहता है कि उनके पास एक बड़ी सी बन्दूक है जिससे उन्होंने ने काफी लोगों को मारा है और कोई उनके घर में जबरदस्ती घुसने की कोशिश करता है उसे वो गोली से मार देते हैं। पर मैं सुनी सुनाई बातों पे विश्वास नहीं करता हूँ। मैं तेरहा साल को हो गया हूँ और मुझे समझ में आता है कि बचपन में सुनाई हुई कहानियों में सचाई कम और कल्पनाओं का जंजाल ज्यादा होता था। और फिर मेरे पिता जी ने भी एक बार कहा था कि वकील साहब की तबियत ठीक नहीं रहती है जिसके कारण वो घर से बहार नहीं निकलते। जो मेरे दोस्त उनके किस्से और कहानियाँ सुनाते है उन पर वो जोर से ठहाका लगाते हुए कहते हैं कि मेरे दोस्तों की कलपनाएँ दिलचस्प है पर सच नहीं।

पूरा साहस जुटा कर मैंने सामने वाले घर के अन्दर जाने का फैसला किया। दरवाज़ा खुला हुआ है और कोई नहीं अन्दर दिख रहा। दरवाज़े के सामने ही ऊपर जाने की सीड़ी भी है। मैं दबे पाँव धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाता हुआ पहली मंजिल पहुँच गया। पर छत एक मंजिल और ऊपर है। पहली मंजिल में दो कमरे है। एक कमरे का दरवाज़ा बंद और दुसरे कमरे में परदा लगा हुआ है। मैं आगे बड़ने लगा तभी मेरे कानों में घुँघरू की आवाज़ आई। दुसरे कमरे से आती मधुर ध्वनि कानों के पर्दों को आनंदित करने लगी। मुझे संगीत का शौक रहा है जिसके कारण मुझसे रहा नहीं गया। मैंने कमरे के परदे को थोडा-सा उठाया और अन्दर झाँक कर देखा। ये तेरह साल की उम्र की विवशता है या शरीर में बदलते हुए क्रियाओं का प्रभाव कि मैं अंजली को देख मन्त्रमुग्ध हो गया। अंजली वकील साहब की पोती है। वो कुछ ३-४ साल मेरे से बड़ी है। जब हम गली में खेलते हैं तो वो अक्सर बरामदे में आकर खड़ी हो जाती है और मंद-मंद मुस्कराती रहती है। शायद उन्हें अपने बचपन के दिन याद आते होंगे। मेरे सभी दोस्त उन्हें अंजू दीदी बुलाते हैं पर मैंने उनसे कभी बात नहीं करी और न जाने क्यों मेरा दिल उन्हें दीदी बुलाने से कतराता है। बड़ी हुई तो क्या हुआ, हर कोई दीदी नहीं होता। अक्सर मेरे दोस्त उनके बारे में बात करते हैं पर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया। ऐसी बात करना छिछोरापन लगता है। पर मुझे ये पता नहीं था, और शायद मेरे कोई दोस्त को पता न होगा कि अंजली को नाचने का भी शौक है। और वो बहुत अच्छा नाचती है। उनके पैरों से आती झंकार एक समां बाँध रही है। उनका कमरा छोटा पर काफी खाली है। एक पलंग है जिस के बाजू में एक मेज़ राखी है। मेज़ पे कुछ किताबें और एक फूलों का गुलदस्ता रखा हुआ है। गुलदस्ते में सिर्फ गुलाब के फूल हैं। कमरे में एक अलमारी भी है जो बंद है। कमरे के एक कोने में टेप-रिकॉर्डर रखा है। अचानक टेप-रिकॉर्डर बंद हो जाता है और उसके साथ ही घुँघरू की आवाज़ भी बंद हो जाती है और मेरी आँखों को पलके झपकने का मौका मिलता है। पर मुझे एहसास हुआ कि मुझे तुरंत घर से निकलना चाहिए। पतंग को छत से निकालने का प्रयास छोड़ मैं नीचे की और भागा। मैं दरवाज़े से बहार जाने ही वाला था कि किसी ने मुझे आवाज़ दी। ये तो दादी जी है। दादी जी वकील साहब की धर्मपत्नी है और मेरे घर में वो अक्सर मेरी दादी से मिलने आती रहती हैं।

"लक्ष्य, तू कब आया?" दादी जी ने पुछा। मैंने अपने हाथो से माथे के पसीना को पोछा और कुछ क्षण सोचने के बाद कहा, "मैं आपको को देखने आया था। वो दादी ने आपको याद किया है।"
"अच्छा ठीक है। मैं आती हूँ।" दादी जी ने कहा और अन्दर चली गयी। मैंने देखा की सामने एक कमरा है जहाँ काली-सफ़ेद धारी वाला परदा लगा हुआ है पर अन्दर बत्ती जल रही है। कमरे से आती खांसने की आवाज़ सुनकर मैंने फिर निकल जाने का प्रयास किया पर फिर दादी जी ने आवाज़ देकर बुला लिया।
"बेटा, एक काम कर। दादा जी के पास बेठ जा। मैं तेरी दादी से मिल कर आती हूँ। उन्हें कोई ज़रुरत होगी तो मुझे तुरंत बुला लेना।"

मैं कुछ विरोध कर पाता उससे पहले ही दादी जी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे वकील साहब के कमरे में ले गयी और वहीँ रखी कुर्सी में बेठ जाने के लिए कहा। कुर्सी से कुछ दो फीट दूर एक पलंग है जिस पर वकील साहब लेटे हुए हैं। उनके शरीर से लग रहा है की वो काफी बरस के हैं। उनका शरीर दुबला है और सारे शरीर मैं झुरियां पड़ चुकी है। उनके बाल सफ़ेद हो चुके हैं और सारे दांत होने का मुझे शक है। उनके दायें हाथ में एक किताब है जिसे वो लेटे हुए पढ़ रहे हैं। किताब को जब मैंने गोर से देखा तो पता चला की वो अंग्रजी में है। उनका कमरा किताबों से भरा पड़ा हुआ है। एक दिवार पर लकड़ी की अलमारी है जिसमें चार लम्बे खाने बने हुए हैं। पहले दो खानों में कई ट्राफी रखी हुई है। कुछ मड़ी हुई तस्वीर है जिसमें वकील साहब के साथ कई और लोग भी है। एक तस्वीर में वो एक शख्स से ट्राफी लेते हुए खड़े हुए हैं। कुछ तस्वीर में प्रमाण-पत्र मड़े हुए हैं। अलमारी की बाकी दो खाने में किताबें एक सीध में जमी हुई है। ईशान दिशा में एक मेज़ है जहाँ कुछ किताबें रखी हुई है। किताबों के साथ कुछ कलम और कई सारी फाइल्स भी राखी हुई है। उसी मेज़ के ऊपर एक छोटा-सा मंदिर है जहाँ राधे-कृष्ण की मूरत रखी हुई है। पलंग के नीचे एक बाल्टी और एक पतले मूह का जग रखा हुआ है । जिस गादी पर वो लेटे हुए हैं वो काफी पुरानी हो चुकी है और उसकी खोली को जल्द धोने की ज़रुरत है। गर्मी के मौसम में उन्होंने मटमैली रजाई ओड़ी हुई है।

वकील साहब ने जैसे ही मुझे देखा तो अपने हाथ से किताब को अपने दायें तरफ राखी और सर हिलाते हुए मुझे कुछ कहा। पहले तो मुझे समझ में नहीं आया। शायद उन्हें बोलने में तकलीफ होती है। जब मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने फिर से कहा। थोड़ा ध्यान देने पे मुझे लगा कि वो मेरा नाम जानना चाहते हैं। मैंने कहा, "मैं लक्ष्य हूँ। सामने वाले घर में रहता हूँ।" उन्होंने मुस्कराते हुए सर हिलाया और वापस किताब पढ़ने लगे। थोड़ी देर बाद अचानक ही उनके हाथ से किताब छूट गयी और किताब धम से ज़मीन पर गिर पड़ी। मैंने जल्दी से किताब को उठाया और वापस पलंग पर रख दिया। वकील साहब ने किताब मेरी तरफ देते हुए कुछ कहा। जब मुझे समझ में नहीं आया तो उन्होंने इशारे से मुझे पढ़ने के लिए कहा। मैंने हिचकिचाते हुए किताब को हाथ में लिया और पढ़ने चालू करा। किताब पढते हुए मुझे एहसास हुआ कि ये महात्मा गाँधी की आत्मकथा है। मैंने किताब का कवर देखा जिस पे लिखा हुआ था 'द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ'। मैंने फिर पढ़ना चालु किया पर तभी दादी जी आ गयी। मुझे पढ़ते हुए देख वो कुछ बोलने से पहले चुप हो गयी। मेरे पास आकर मेरे सिर पे हाथ फेरते हुए कहा, "उनको पढ़ने का बड़ा शौक है पर शरीर साथ नहीं दे पाता। तू अगर कुछ देर के लिए आकर इन्हें पढ़कर सुना दिया करेगा तो इनको बड़ा अच्छा लगेगा।"
"मुझे पापा से पूछना पड़ेगा।"
"तेरे पापा मना नहीं करेंगे। फिर भी मैं बात करुँगी।"
"ठीक है।"
पता नहीं मैं क्यों मान गया। शायद मैंने सोचा इसी बहाने मुझे अंजली को देखने का मौका मिलता रहेगा। दादी जी को जैसे विश्वास था कि मेरे पिता जी मुझे मना नहीं करेंगे और हुआ भी वही और मैं कभी-कभी वकील साहब के घर जाने लगा। वो हमेशा मुझे एक नयी किताब देते। कुछ हिंदी तो कुछ अंग्रेजी में होती। जैसे ही मौका मिलता मैं ऊपर वाले कमरे में झाँकने जाता जहाँ कभी अंजली घुँघरू पहने हुए नाचती या पलंग में लेटे संगीत का लुफ्त उठाती। मैं हमेशा एक गुलाब का फूल लाता और चुपके से दरवाज़े के पास रखी कुर्सी पे रख देता।

दिन गुज़रते चले गये और मेरा वकील साहब के घर आना-जाना चलता रहा। जैसा मेरे दोस्तों सोचते हैं वैसे वकील साहब नहीं हैं। न तो उनके पास कोई बन्दूक है और न ही वो मरे है। उन्होंने अपनी एक अलग दुनिया बना ली है जहाँ कोई और आता जाता नहीं। पर शायद मैंने उनकी दुनिया में कदम रख लिया है। और मेरे दखल ने उनकी दुनिया को कुछ बदला भी है। अब उनके चेहरे पे मुस्कराहट आना आम बात है। किताबों को पढ़ने में मुझे भी मज़ा आता है और उन्हें भी। उनके इशारे के साथ साथ उनकी बोली भी मैं समझने लगा हूँ। कभी दादी से तो कभी पिता जी से मुझे पता लगा की वो शहर के नामी वकील हुआ करते थे। शहर के उच्च न्यालय में सभी उनको जानते हैं और उनकी इज्ज़त करते हैं। उन्होंने अपने पेशे में कभी कोई गलत काम नहीं किया जिसके कारण उन्हें कई बार सम्मानित किया गया जिसका प्रमाण उनके अलमारी में रखी हुई ढेर सारी ट्राफी हैं। पर एक दुर्घटना में उनके शरीर का बायाँ हिस्सा लकवा मार गया और दांया पैर इतना कमज़ोर हो गया कि वो चल नहीं पाते।
"पर वो अपने कमरे से बहार क्यों नहीं निकलते?" मैंने पिता जी से पुछा।
"पता नहीं। शायद वो अपनी लाचारी को जगजाहिर नहीं करना चाहते। मैं जानता हूँ की उनको कई बार अनेको कार्यक्रमों में आमंत्रित किया गया और कई बार तो विशेष अतिथि की रूप में बुलाया गया पर उन्होंने हर बार मना कर दिया। मुझे डर है की वो अपनी ज़िन्दगी को एक कमरे के अन्दर केद न कर ले। खेर वो उनकी ज़िन्दगी है और उनकी मर्ज़ी है कि वो अपनी ज़िन्दगी को कैसे जिए।" मैंने सर हिलाते हुए पिता जी की बात को मंज़ूर कर लिया।

मैं आज प्रेमचंद द्वारा रचित 'गोदान' पढ़ रहा हूँ। बहुत सारे शब्दों का अर्थ मुझे समझ नहीं आ रहा है पर मुझे यकीन वकील साहब को सब समझ में आ रहा होगा। मैं किताब पढ़ने में इतना मगन था कि मुझे पता ही नहीं चला कि अंजली दरवाज़े की देहलीज पर परदा पकड़े कड़ी हुई है। जब मेरा ध्यान उस पर गया तो मैं थोडा सकपका गया। अचानक दिल की धड़कने तेज़ हो गयी और मुहं में जुबान चली गयी। मुझे डर लगा कि शायद उसे पता चल गया है कि मैं उसे चोरी छुपे उनके कमरे में गुलाब का फूल रखता हूँ।
"तुम लक्ष्य हो न?" अंजली ने पुछा।
घबराहट से गला सूख गया पर हिम्मत कर मैं खड़ा हुआ और सिर हिला दिया।
"तो तुम दादा जी को पढ़कर सुनाते हो।"
मैंने कुछ नहीं कहा और सर झुक लिया। मैं क्यों शर्मा रहा हूँ ?
अंजली ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा, "अच्छा है। ये दादा जी एक ख़त आया है। इसे भी पढ़कर सुना दो।" और मेरे हाथ में एक ख़त पकड़ा कर कमरे से चली गयी। मैंने ख़त को खोला और पढ़ना चालु किया। ख़त कोई बार असोसिएशन से है। संस्था के पचास साल पूरे होने पे दादा जी को विशेष सम्मान दिया जा रहा है। दादा जी ने ख़त को लिया और एक हाथों की मुठी से मोड़ कर कमरे के एक कोने में फेंक दिया। उनकी आँखों में गुस्सा देख में डर गया। इशारों से उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा।

दुसरे दिन मैं फिर से उन्हें कुछ पढ़कर सुनाने लगा। अचानक मेरी नज़र कमरे के उस कोने पे गयी जहाँ कल का फेंका हुआ ख़त पड़ा हुआ है। मैंने किताब को बंद किया और वकील साहब से कहा, "सम्मान तो गर्व की बात है फिर आप क्यों नहीं जाना चाहते?"
"तुम अभी बच्चे हो। नहीं समझोगे।" लडखडाती हुई आवाज़ में वकील साहब ने उत्तर दिया।
अपने परिपक्वता के स्तर को खतरे में देख मैं ताओ में उठा, किताब को कुर्सी पे पटका और कहा, "क्या मिलता है आपको यहाँ पड़े-पड़े? क्यों एक कमरे में आप अपनी बाकी की ज़िन्दगी बसर करना चाहते हैं? पता नहीं आप दुनिया से गुस्सा हो या अपने आप से और या उस खुदा से जिसने आपके साथ ये किया?"
"मैं किसी से गुस्सा नहीं हूँ। अब बेठ जाओ।"
"आपको अच्छा नहीं लगता बागों में घूमना, छोटे-छोटे बच्चों को खेलते हुए देखना, दोस्तों के साथ गपशप करना, नए लोगों से मिलना-बात करना। मेरे पापा को तो ये सब बहुत पसंद आता है। आपको नहीं पसंद? आपका मन नहीं करता?"
"नहीं! अब पढोगे?" वकील साहब ने हड़बड़ाते हुए कहा।
"मैं अब तभी पदुंगा जब आप जाने के लिए राज़ी होंगे।"
थोड़ी देर सोचने के बाद वकील साहब ने कहा, "ठीक है। मैं चलने को तयार हूँ। पर मैं जाऊंगा कैसे?'
"रुको मैं आता हूँ।"
मैं दोड़ कर पहली मंजिल में अंजली के कमरे में गया। मैंने पहली बार परदे से झाँकने की जगह दरवाज़े पर दस्तक दी। अंजली पलंग पर बेठे कुछ पढ़ रही थी जब उन्होंने मुझे देखा और अन्दर आने को कहा।
"क्या आपके पापा एक दिन के लिए व्हीलचेयर का इंतज़ाम कर सकते हैं?" मैंने अंजली से पूछा। अंजली के माता-पिता, दोनों ही हस्पताल में काम करते हैं।
थोड़ी देर सोचने के बाद अंजली ने जवाब दिया, "हाँ .. शायद .. पूछना पड़ेगा। पर क्यों?"
"आपके दादा जी के लिए। अगले शनिवार को चाहिए। मुझे यकीन है कि आप अपने पापा को मना लेंगी।" कहते हुए मैं नीचे की और दोड़ा। रसोइघर में जाकर दादी जी से वकील साहब का सबसे अच्छा सूट धुलवाकर तयार करने को कहा।
वकील साहब के कमरे में आकर मुस्कराते हुए मैंने पढ़ना चालू कर दिया।

शनिवार के दिन वकील साहब बिस्तर से कई दिनों बाद उठे। उनको नहलाया गया। दादी जी की मदद से उहोने अपना सबसे अच्छा सूट पहना। अंजली के पिता जी ने व्हीलचेयर के साथ एक गाड़ी का भी इंतज़ाम किया। वकील साहब जब व्हीलचेयर में घर से बहार निकले तो उनकी आँखें बार बार बंद हो जाती। उनकी आँखों ने दिन की तेज़ रौशनी कई दिनों बाद देखी है। गली में आज मजमा लगा हुआ है। कोई छत की मुंडेर से झाँक कर देख रहा है या तो कोई घर के दरवाज़े खोल कर वकील साहब को देखने चला है पर सभी आँखे अचंभित है। कोई अपनी आँखें बार बार मल कर ये समझने की कोशिश कर रहा है कि वो सपना देख रहा है या हकीकत। कुछ लोग मौका पाकर वकील साहब के पास आकर नमस्ते कर रहे हैं और उनका हाल चल पूछ रहे हैं। कुछ लोगों वकील साहब की मदद करने के लिए तयार खड़े हैं। पर उन्होंने किसी की मदद लिए बगेर गाड़ी में बेठ गए। उनके साथ दादी जी भी बेठ गयी। वकील साहब ने दायें हाथ से गाड़ी की खिड़की का कांच नीचे किया और मुझे अपने पास आने का इशारा किया। मैं अपने घर के दरवाज़े के पास खड़ा था। मैंने मुस्कराते हुए उनसे कहा, "आप बहुत अच्छे लग रहे हो।" उनकी आँखें नम है पर होठों पे मुस्कराहट। उन्होंने मेरे सिर पे हाथ फेरा और कहा, "खुश रहो" मैं कुछ कह पाता उससे पहले मेरे कानों में एक आवाज़ आई, "थैंक यू!" मैंने देखा कि अंजली हाथ बढाये हुई खड़ी है। मैंने भी अपना हाथ बढ़ा कर उनसे हाथ मिलाया और शुक्रिया कबूल किया। वो भी वकील साहब के साथ चली गयी।

मेरे कुछ दोस्त बिजली के खम्बे के पास खड़े होकर सबकुछ देख रहे है। मैं उनके पास गया और अपनी मुट्ठी खोल कर दिखाया। मुट्ठी में एक गुलाब का फूल है जो अंजली ने हाथ मिलाते वक़्त मुझे दिया।

-लक्ष्य

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